Home कैम्पस ‘भाषाओं का विलुप्त होते जाना चिंताजनक, संरक्षण जरूरी’

‘भाषाओं का विलुप्त होते जाना चिंताजनक, संरक्षण जरूरी’

विलुप्त होती भाषाओं पर गुरु घासीदास केन्द्रीय विवि में व्याख्यान।

गुरु घासीदास केन्द्रीय विवि में व्याख्यान

गुरु घासीदास केन्द्रीय विश्वविद्यालय में छत्तीसगढ़ के जन जातियों की सांस्कृतिक विरासत पर हुए व्याख्यान में वक्ताओं ने दुनियाभर में भाषाओं के तेजी से विलुप्त होने पर चिंता जताते हुए इनके संरक्षण पर जोर दिया।

व्याख्यान की पहली श्रृंखला के समापन समारोह के पूर्व दो तकनीकी सत्रों का आयोजन किया गया। पहले सत्र में रविशंकर विश्वविद्यालय के साहित्य एवं भाषा अध्ययनशाला के पूर्व अधिष्ठाता प्रो. चितरंजन कर  ने कहा कि जनजातियां भारत की जनसंख्या के मूल निवासी और अभिन्न अंग हैं। भाषा ही किसी भी समाज के संस्कृति को जीवित रखती है। आधुनिक दुनिया में भाषाओं का मिश्रण तेजी से होता दिखाई दे रहा है जिसके कारण भाषाएं लुप्त होने के कगार पर हैं। इन्हें संरक्षित करने की आवश्यकता है। कला अध्ययनशाला के अधिष्ठाता प्रोफेसर मनीष श्रीवास्तव ने प्रथम तकनीकी सत्र की अध्यक्षता करते हुए सेंटर फॉर इनडेंजरर्ड लैंग्वेज के तहत योजनाओं के संचालन के लिए विश्वविद्यालय को प्रेरणा बताया। उन्होंने संस्था और समाज के जुड़ाव पर प्रकाश डाला। भाषा संस्कृति का पोषण करती है एवं उसे मूल रूप प्रदान करती है। उन्होंने परस्पर भाषाओं के ज्ञान का प्रवाह न होने के कारण उनके लुप्त होने की बात कही। मुख्यमंत्री के विशेष कर्तव्यस्थ अधिकारी विवेक सक्सेना ने कहा कि भाषा का सामाजिक संस्थाओं में बहुत महत्व है।

द्वितीय तकनीकी सत्र में डॉ. रूपेन्द्र कवि, टीआरटीआई, जगदलपुर, छत्तीसगढ़ ने बताया  अब तक 250 भाषाएं विलुप्त हो चुकी हैं। उन्होंने बस्तर की हलबी जनजाति पर भी प्रकाश डाला। उन्होंने कहा कि भारत में भाषा संप्रेषण का कार्य करती है तथा पीढ़ी दर पीढ़ी स्थानांतरित होकर संस्कृति का भी विकास करती है। यदि हम अपनी भाषा को संरक्षित करना चाहते हैं तो इसे अपने पाठ्यक्रम में सम्मिलित करना चाहिए।

जीव विज्ञान अध्ययनशाला की अधिष्ठाता एवं जैव प्रौद्योगिकी विभाग की विभागाध्यक्ष डॉ. रेणु भट्ट ने कहा कि जिस प्रकार से जैव प्रौद्योगिकी में रिकांबिनेंट डीएनए मूल प्रजाति से विलुप्त हो रही है ठीक उसी प्रकार से भिन्न-भिन्न भाषाओं के मिश्रण से उनके मूल अस्तित्व को धीरे-धीरे खत्म कर रही है।

आभार प्रदर्शन विश्वविद्यालय के लुप्तप्राय भाषा केन्द्र के समन्वयक डॉ. नीलकण्ठ पाणीग्रही ने किया। कार्यक्रम में विश्वविद्यालय की विभिन्न अध्ययनशालाओं के अधिष्ठातागण, विभागाध्यक्षगण, शिक्षणकगण, अधिकारीगण, कर्मचारीगण एवं बडी संख्या में छात्र-छात्राएं उपस्थित रहे।

इससे पूर्व विश्वविद्यालय व सेन्टर फॉर स्टडीज ऑन होलिस्टिक डेवलपमेंट (सीएसएचडी) रायपुर, छत्तीसगढ़ के साथ एमओयू हस्ताक्षर समारोह का आयोजन हुआ। उद्घाटन समारोह के मुख्य अतिथि हेमचंद यादव विश्वविद्यालय के कुलपति प्रो. शैलेन्द्र सराफ थे। अध्यक्षता कुलपति प्रो. अंजिला गुप्ता ने की।

केन्द्रीय विश्वविद्यालय के लुप्तप्राय भाषा केन्द्र द्वारा भाषा संस्कृति को आगे बढ़ाने का कार्य किया जा रहा है। भारत में लगभग 8 प्रतिशत जनजातियों की संख्या 642 जनजाति वर्ग में बंटी हुई है। छत्तीसगढ़ में 30.6 प्रतिशत जनजाति रहते हैं, जो 42 वर्ग या समाज में मिलते हैं। छत्तीसगढ़ जनजाति बाहुल्य राज्य है। यहां की जनजातियों की संख्या को देखते हुए विश्वविद्यालय अनुदान आयोग ने बारहवीं पंचवर्षीय योजना के अंतर्गत विलुप्त हो रही भाषा के विकास के लिए गुरु घासीदास विश्वविद्यालय को 3 करोड़ 60 लाख रुपये अनुदान दिया है। इसी संदर्भ में विश्वविद्यालय ने कम्प्यूटेशनल लिंग्विस्टिक्स एण्ड डेवलपिंग डिजिटल लैंग्वेज रिलेटेड डाटा बैंक पर पाठ्यक्रम प्रारंभ करने की प्रक्रिया शुरू की है। केन्द्रीय विश्वविद्यालय और सीएसएचडी के साथ हुआ एमओयू जनजातीय छात्रों के विकास के लिए सहायक सिद्ध होगा। विद्यार्थी इस क्षेत्र में विलुप्तप्राय भाषाओं के प्रलेखन, संरक्षण एवं संवर्धन की दिशा में अग्रसर होंगे एवं जनजातीय संस्कृति के संरक्षण में अपनी जिम्मेदारी निभाएंगे। लुप्तप्राय भाषा के संरक्षण हेतु तीन विश्वविद्यालयों को जोड़ा गया है जिनमें गुरु घासीदास विश्वविद्यालय, , झारखंड केन्द्रीय विश्वविद्यालय, झारखंड एवं इंदिरा गांधी राष्ट्रीय जनजातीय विश्वविद्यालय, अमरकंटक शामिल हैं।

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