गुरु घासीदास केन्द्रीय विश्वविद्यालय ने छत्तीसगढ़ की सामाजिक, साहित्यिक, सांस्कृतिक, भौगोलिक एवं ऐतिहासिक विरासत की देश के अन्य हिस्सों में पहचान कराने के लिए ‘छत्तीसगढ़ बोध‘ पर पुनश्चर्या पाठ्यक्रम आयोजित करने का निर्णय लिया है। विश्वविद्यालय के यूजीसी मानव संसाधन केन्द्र द्वारा आयोजित यह पाठ्यक्रम 21 दिनों का होगा, जिसमें करीब 65 व्याख्यान होंगे।

कुलपति प्रोफेसर अंजिला गुप्ता ने प्रदेश में पहली बार छत्तीसगढ़ की जानकारी आम लोगों तक पहुंचाने के लिए छत्तीसगढ़ बोध पर पुनश्चर्या पाठ्यक्रम आयोजित करने का निर्णय लिया। उनके व्यक्तिगत प्रयासों के फलस्वरूप विश्वविद्यालय अनुदान आयोग यूजीसी ने इसकी अनुमति दी है। यह पुनश्चर्या पाठ्यक्रम 8 से 29 दिसम्बर, तक प्रस्तावित है। इस 21 दिवसीय पाठ्यक्रम में कुल 18 कार्य दिवस होंगे। इसमें व्याख्यान हेतु 40 विषय विशेषज्ञों को बुलाए जाने की योजना है। 18 कार्य दिवसों में कुल 65 विशेष व्याख्यान होंगे। इस पाठ्यक्रम का समन्वयक डॉ. के.के. चन्द्रा, सह प्राध्यापक वानिकी, वन्य जीव एवं पर्यावरणीय विज्ञान विभाग को बनाया गया है।

गौरतलब है कि छत्तीसगढ़ को भगवान राम का ननिहाल माना जाता है। मान्यता है कि आरंग के पास मां कौशल्या का मायका था। वनवास के दौरान भगवान राम छत्तीसगढ़ में भी रहे। यहां उन्होंने शिवरीनारायण में मां शबरी के जूठे बेर खाए। हिन्दी भाषा की प्रथम कहानी ‘‘टोकरी भर मिट्टी‘‘ छत्तीसगढ़ के पेण्ड्रा में रची गई थी। इसके रचयिता पंडित माधव राव सप्रे थे, जिन्होंने करीब 118 साल पहले पेण्ड्रा से ‘‘छत्तीसगढ़ मित्र‘‘ नामक साहित्यिक पत्रिका का प्रकाशन प्रारम्भ किया था। छत्तीसगढ़ की अन्य महान विभूतियों में समाज सुधारक संत गुरु घासीदास, स्वतंत्रता संग्राम सेनानी पंडित सुंदरलाल शर्मा, स्वतंत्रता संग्राम सेनानी बैरिस्टर ठाकुर छेदीलाल, साहित्यकार गजानन माधव मुक्तिबोध, क्रांतिकारी शहीद वीर नारायण सिंह, अविभाजित मध्यप्रदेश के प्रथम मुख्यमंत्री पंडित रविशंकर शुक्ल, साहित्यकार मुकुटधर पाण्डेय, श्रीकांत वर्मा, पदुमलाल पुन्नालाल बख्शी एवं रंगकर्मी हबीब तनवीर का नाम प्रमुखता से लिया जाता है।

छत्तीसगढ़ प्राचीनकाल के दक्षिण कौशल का एक हिस्सा है। पौराणिक काल का ‘कौशल प्रदेश‘ कालान्तर में ‘उत्तर कौशल‘ और ‘दक्षिण कौशल‘ नाम से दो भागों में विभक्त हो गया था। इसी का ‘दक्षिण कौशल‘ वर्तमान छत्तीसगढ़ कहलाता है। छत्तीसगढ़ स्थित महानदी, जिसका प्राचीन नाम ‘चित्रलेखा‘ है- का उल्लेख मत्स्य पुराण, महाभारत के ग्रीष्म पर्व एवं ब्रह्म पुराण में मिलता है। बाल्मीकि रामायण मे भी छत्तीसगढ़ के बीहड़वनों तथा महानदी का स्पष्ट विवरण है। आदिवासी बाहुल्य राज्य छत्तीसगढ़ की अपनी सांस्कृतिक पहचान है। यहां की लोक कला, परम्पराएं, रीति-रीवाज, तीज-त्यौहार, मेला मड़ई की ख्याति पूरे देश में है।

धार्मिक या पर्यटन की दृष्टि से भी कई महत्वपूर्ण स्थल इस राज्य में है। डोंगरगढ़ स्थित मां बम्लेश्वरी का मंदिर करीब 2200 वर्ष पुराना है। इसका निर्माण राजा वीरसेन ने कराया था। वहीं रतनपुर के मां महामाया मंदिर की ख्याति भी पूरे देश में है। कल्चुरी शासक रत्नदेव-प्रथम ने 1050 ई. में रतनपुर नगर बसाया था। गिरौदपुरी संत गुरु घासीदास की कर्मस्थली तथा सतनामी समाज का प्रमुख तीर्थ स्थल है। यहां निर्मित जैतखाम की ऊंचाई 77 मीटर है, जो कुतुब मीनार से भी ऊंचा है।

राजिम को छत्तीसगढ़ का प्रयाग कहा जाता है। यहां तीन नदियों महानदी, पैरी तथा सोंढुर के संगम के मध्य में कुलेश्वर महादेव का विशाल मंदिर स्थापित है। सिरपुर में सातवीं शताब्दी का लक्ष्मण मंदिर है। पाण्डुवंशीय शासक महाशिव गुप्त के काल में उनकी माता वासटा देवी ने अपने पति हर्षगुप्त की याद में इसे बनवाया था। यह छत्तीसगढ़ में बौद्ध धर्म का तीर्थस्थल है। सन् 1089 ई. में फणीनागवंशीय शासक गोपाल देव द्वारा निर्मित भोरमदेव मंदिर (कवर्धा) छत्तीसगढ़ के खजुराहो के नाम से जाना जाता है।

इस विशेष पुनश्चर्या कार्यक्रम में देश भर के विभिन्न विश्वविद्यालयों एवं महाविद्यालयों के शिक्षक शामिल होंगे एवं छत्तीसगढ़ का बोध करेंगे और छत्तीसगढ़ की समृद्व एवं वैभवशाली संस्कृति, कला एवं इतिहास की जानकारी प्राप्त होगी।

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