मजदूर कविता को खुशी- अब बच्चों के लिए दूध का इंतजाम हो जायेगा

बिलासपुर। गुजरात से दो माह की कैद सी जिंदगी बिताने के बाद बिलासपुर स्टेशन पर आज सुबह उतरे मजदूरों के चेहरों पर खुशी साफ पढ़ी जा सकती थी। लॉकडाउन के बाद उनका रोजगार तो छिन ही गया था, बचाकर रखी गई कमाई धीरे-धीरे खत्म होने लगी थी। वहां मदद करने वाला कोई नहीं था, सारे पैसे खत्म हो जाते तो कैसे पेट भरते इसे सोचकर चिंता लगी हुई थी। अब उन्हें इतना भरोसा है कि अपनों के बीच अपने गांव में रहकर वे इतना तो काम पा ही जायेंगे कि बाल-बच्चों का पेट भर सकें।

देश के विभिन्न हिस्सों में फंसे छत्तीसगढ़ के प्रवासी मजदूरों को वापस लाने का सिलसिला शुरू हो चुका है। कल शाम अहमदाबाद से 1208 मजदूरों को लेकर रवाना हुई श्रमिक स्पेशल ट्रेन आज सुबह बिलासपुर स्टेशन पर पहुंची तो मजदूर काफी खुश थे। इन श्रमिकों में अधिकांश लोग जिले के मस्तूरी विकासखंड के हैं। इसके अलावा बिल्हा, तखतपुर व कोटा के कुछ श्रमिक भी आये हैं। ये सभी अहमदाबाद, गांधीनगर, नाडियाड आदि शहरों के आसपास ईंट भट्ठों में काम करते रहे हैं।

ट्रेन से उतरने वालों में मस्तूरी क्षेत्र के खपरी गांव की कविता कुर्रे भी थीं। वह अपने दो छोटे  बच्चों व पति के साथ प्लेटफॉर्म पर खड़ी स्वास्थ्य जांच के लिए अपनी बारी का इंतजार कर रही थी। ‘छत्तीसगढ़’ से बातचीत करते हुए उसने बताया कि हर साल वे लोग दीपावली के आसपास कमाने खाने के लिए बाहर निकल जाते हैं और होली के पहले वापस आ जाते हैं। इस बार जैसे ही लौटने का समय आया लॉकडाउन लग गया और वहीं फंसे रह गये। जिस कम्पनी में ईंट बनाने का काम करते थे, वहां मालिक उदार था। वह राशन के लिए पैसे छोड़ जाता था या फिर राशन ही देकर चला जाता था लेकिन सिर्फ पेट भरने के लिए तो वहां गये नहीं थे। बच्चों के लिये दूध की व्यवस्था नहीं कर पा रहे थे। अब यहां आने पर कम से कम यह इंतजाम तो हो जायेगा। कविता कक्षा नवमीं तक पढ़ी है। उसके पति प्रकाश का कहना था कि वहां हमें कोई तकलीफ नहीं थी। ईंट भट्ठे में हम दो लोग मिलकर एक दिन में 1500-1700 ईंट तैयार कर लेते थे। एक हजार ईंट के पीछे 600 रुपये मिलता था। काम बंद होने के बाद गांव की लगातार याद आ रही थी। अब गांव में ही कुछ काम देखेंगे। काम नहीं मिला तो महामारी का माहौल ठीक होने का इंतजार करेंगे और मौका मिलेगा तो फिर वापस ईंट भट्ठे में काम करने के लिए चले जायेंगे।

पचपेड़ी के केवतरा गांव का कुशल कुर्रे अपने 16 वर्षीय बेटे और पत्नी के साथ इस ट्रेन से लौटा है। उसका कहना है कि बीते तीन साल से गुजरात जा रहे हैं। ईंट भट्ठे में एक आदमी को औसतन पांच-छह सौ रुपये मिल जाते थे। हर बार दशहरा के समय जाकर होली के बाद लौटते थे कमाई के रुपये लेकर। एक आदमी को चार सौ रुपये की आमदनी रोजाना हो जाती थी, चार आदमी 16 सौ कमा लेते थे। काम बंद हुआ, रुपये भी खत्म हो गये। इस बार बचाकर कुछ नहीं ला पाये। दो माह खाली बैठना पड़ा। पर सुकून इस बात का है कि गांव लौट गये। फिलहाल तीन-चार माह तो चिंता नहीं है क्योंकि खेती का मौसम सामने है। उसके बाद भी परदेस जाने के बारे में तभी सोचेंगे जब यहां काम नहीं मिलेगा। जब यहां कुछ काम नहीं मिलेगा तो मजबूरी में बाहर तो जाना पड़ेगा।

जयरामनगर के रलिया गांव की मीना पात्रे अपने पति और बच्चों के साथ स्टेशन पर गांव रवाना होने के लिए निकली थी। वह गुजरात के गांधीनगर और बड़ौदा में ईंटभट्ठे में काम करती थी। उसने बताया कि गांव से कुल 49 लोग गये थे, सभी वापस आ गये हैं। ट्रेन का बहुत दिन से इंतजार कर रहे थे। ट्रेन रवाना होने पर मन को शांति मिली। रास्ते में कहीं तकलीफ नहीं हुई। शाम को पांच बजे जो निकली ट्रेन तो सीधे बिलासपुर में ही आकर रुकी। आराम से बैठकर आये। कविता की तरह इनकी कम्पनी का ठेकेदार उदार नहीं था। इन्हें अपने कमाये हुए पैसे ही राशन खरीदकर खाना पड़ रहा था। हर बार होली के समय आते थे तो अच्छी खासी रकम जमा करके लाते थे पर इस बार कुछ बचा नहीं है। जितना कमाये थे सब खा डाले। उसका पति शिवकुमार पात्रे आठवीं तक पढ़ा है। वह कहता है मनरेगा में काम तो वह कर लेगा पर ज्यादा कुछ कमाने के लिए कुछ हुनर भी सीखेगा, कोशिश करेगा कि दुबारा दूसरे प्रदेश जाने की नौबत नहीं आये। अभी तो सिर्फ गांव कैसे पहुंचे और अपनों से मिलें, यही सोच रहे हैं।

कई अन्य श्रमिकों से बात हुई, उन्होंने भी यही कहा कि बिलासपुर स्टेशन में उतरने के बाद वे अपने आपको सुरक्षित महसूस कर रहे हैं। बस, खाली न बैठें वरना फिर उन्हें दूसरे प्रदेशों में जाकर मजदूरी ढूंढने का जोखिम उठाना पड़ेगा, जिसकी अब इच्छा नहीं रह गई है।

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