राजेश अग्रवाल

मुझे पता नहीं था कि यूएनओ ने कोई अंतर्राष्ट्रीय लोकतंत्र दिवस भी तय कर रखा है। ब्रिटिश डिप्टी हाई कमीशन की ओर से International day of democracy पर चर्चा में भाग लेने रविवार को रायपुर में था ।
हम सबको समेटा छत्तीसगढ़ के जाने-माने पत्रकार और मेरे बॉस सुनील कुमार ने।
निर्दश था, पत्रकारों में कोई दलित हो तो उनसे आग्रह करूं, कोई महिला पत्रकार हो तो वह भी पूछ लूं। प्रयास किया-निराशा हाथ लगी। बिलासपुर अभी महानगर नहीं हुआ है। आरक्षित वर्ग के तीन पत्रकारों ने इस सम्मलेन को महत्वपूर्ण नहीं माना।
महिला पत्रकारों से मैं ठीक तरह से आग्रह नहीं कर पाया। कुछ नाम मेरे दिमाग में थे, बात की। एक से कहा कि- तुम ट्रेन से, सुरक्षित तरीके से पहुंचो, लौटो। हो गया मना..।
बिलासपुर में कम से कम पांच निचले कहे जाने वाले समुदाय से पत्रकार अच्छा काम कर रहे हैं। महिला वर्ग में भी संभावनाएं धीमी गति से ही सही, पर दिख जाती है। आने वाले कुछ सालों में शायद उनका हौसला हो और आगे बढ़ें। आख़िर कस्बाई बिलासपुर बड़ा नगर-निगम होने वाला है, बी ग्रेड दर्जा मिलेगा और हवाई सेवा शुरू होगी।
बिलासपुर की महिला पत्रकारों को मैं बताना चाहूंगा कि बस्तर संभाग, जिसे हम बिलासपुर से बहुत पिछड़ा समझते हैं वहां से तीन महिला पत्रकारों ने उपस्थिति दी, दंतेवाड़ा, जगदलपुर और बीजापुर से। बेबाकी से उन्होंने अपनी बात ठोस तरीके से रखी। उन्हें किन विषम परिस्थितियों में काम करना पड़ रहा है ये समझने का मौका मिला। मुझे याद नहीं पड़ता कि बिलासपुर में कोई सवाल किसी महिला पत्रकार ने उठाया हो। मुद्दे बहुत से हैं।
जो नहीं आये उनकी बात चलिये छोड़ दें।
छत्तीसगढ़ अख़बार से मैंने, दूरदर्शन से कमल दुबे ने, सीजी वाल वेबसाइट से रूद अवस्थी और पीटीआई के राजेश दुआ ने उपस्थिति थी। आयोजकों का कहना था कि हमने आकर कार्यक्रम की गरिमा बढ़ाई। ऐसा सबके लिए कहा गया..।
बड़ी अच्छी चर्चा हुई। कुछ बिन्दु इस प्रकार हैः
– मुख्य वक्ता रमेश नैयर ने अपने पांच दशक के अनुभवों को 15 मिनट में समेटा। वे पंजाब के ट्रस्ट संचालित अंग्रेजी अख़बार ट्रिब्यून में तब सम्पादक थे जब वहां उग्रवाद चरम पर था। हिन्दू मारे जा रहे थे, बस से उतारकर, हाट बाज़ार और सड़क पर घेरकर। उन्होंने बताया कि वहां की मीडिया ने कभी साहस और संयम नहीं खोया। पंजाब केसरी के लाला लाजपत राय और उनके बेटे रमेश चंद्र की आंतकियों द्वारा हत्या किये जाने के बावजूद और लोंगोवाल की हत्या के बाद भी। सब ने बाद में समझा कि हिन्दू और सिखों को विभाजित करने के लिए पाकिस्तान प्रायोजित आतंक पंजाब में सफल नहीं होगा।
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उन्होंने बताया कि बस्तर में, साठ के दशक में ब्रिटिश स्कॉलर प्रवीरभंज देव की हत्या के बाद किस तरह नक्सलवाद का बीज प्रस्फुटित हुआ। वहां 70 के दशक में सरकार के प्रतिनिधियों, पुलिस और वन कर्मचारी-अधिकारियों के ख़िलाफ़ हुए मोह भंग का वारंगल के कॉलेज के छात्रों ने इस्तेमाल किया।
– उन्होंने यह भी बताया कि शुरूआती दिनों में मीडिया ने सरकार के इकाईयों की मनमानी, शोषण, अत्याचार को लेकर माओवादियों के लिए सह्रदयता दिखाई। बाद में आंध्र के नक्सली दलों ने कम्पनियों और ठेकेदारों से वसूली शुरू की। बस्तर के आदिवासियों को सरकार स्वास्थ्य तथा अनाज की सुविधा पहुंचाने में विफल होती गई, जिसके चलते माओवादियों को आदिवासियों के बीच पैठ बनाने का मौका मिला। नक्सल ऐसे ही पनपा। बस्तर के लोग बड़ी दुविधा में हैं। उन्हें नक्सलियों को भी खाना खिलाना पड़ता है और पुलिस वालों को भी।
– सुदूर बीजापुर से आये इलेक्ट्रॉनिक मीडिया के पत्रकार मुकेश ने बताया कि उन्हें फोर्स नक्सलियों का आदमी समझती है और नक्सली भी संदेह से देखते हैं। उन्होंने एक वाकये का जिक्र किया, जिसमें रिपोर्टिंग करके लौटते समय नक्सलियों ने उनके सिर पर बंदूक रख दिया था, वे एनकाउंटर के शिकार होने वाले थे, पर उनकी बॉस प्रियंका कौशल ने उन्हें बचाने में मदद की।
– बड़े अंग्रेजी अख़बार TOI की पत्रकार रश्मि ने बताया कि उन्हें कैसे टूरिज़्म से जुड़ी भ्रष्टाचार की एक रिपोर्ट को छपवाने के लिए जूझना पड़ा। रिपोर्ट तो बहुत कोशिशों के बाद छप गई पर उनसे वह बीट छीन लिया गया जिस पर रिपोर्ट थी।
– वरिष्ठ पत्रकार प्रियंका कौशल ने एक जोख़िम भरी रिपोर्टिंग पर चर्चा की। उन्होंने बताया कि धान ख़रीदी के बाद कस्टम मिलिंग के लिए होने वाले परिवहन पर करोड़ों का घोटाला था। जिन ट्रकों पर राइस मिलों में धान पहुंचाए गये, वे ट्रक नहीं दरअसल मोटरसाइकिल थे। जब इस पर सवाल किया गया तो तत्कालीन सौम्य कहे जाने वाले प्रदेश के मुखिया ने अपना रौद्र रूप दिखाते हुए प्रतिक्रिया दी और प्रियंका को इसका नतीजा भुगतना पड़ा।
– पायोनियर की बीजापुर से पत्रकार पुष्पा ने भी बताया कि किस तरह फोर्स ने आठ आदिवासियों को मौत के घाट उतार दिया और उस घटना को छुपाने-दबाने की कोशिश की। उन्होंने आठ आदिवासियों की मौत पुलिस एनकाउंटर से होने की ख़बर निकाली तो तहलका मच गया।
– यहीं की एक महिला पत्रकार ने बताया ने कि उन्हें सच लिखने की वजह से चरित्र हनन से जूझना पड़ा, उन्हें अपनी बिटिया को लेकर भी चिंता है।
– रायपुर की हमीदा ने बताया कि एक सरपंच के भ्रष्टाचार की इलेक्ट्रानिक मीडिया के लिये रिपोर्टिंग के दौरान कैसे उसकी जान जोखिम में पड़ गई थी। वह उस गांव से निकलने में ही घबरा रही थीं, जहां ख़बर निकालने के लिए गई थीं। इस रिपोर्टिंग पर उनके ही मीडिया से जुड़े साथियों का समर्थन नहीं मिला।
– कुशाभाऊ विश्वविद्यालय की फेकल्टी रहीं स्मिता शर्मा ने बताया कि रिपोर्टिंग में सिद्धांतों की बात करने के लिए कोई प्रशिक्षण पत्रकारिता के संस्थानों में नहीं है।
– आनंद बाजार पत्रिका कोलकाता से ख़ास तौर पर पधारी स्वाति भट्टाचार्य ने बताया कि कश्मीर में लोगों की आवाज़ बंद होने के बावजूद वहां अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता के लिए डिजिटल कन्वर्सेशन के जरिये लड़ाई लड़ी जा रही है।
– कार्यक्रम में एक और विशेष, बेहतरीन उपस्थिति ट्रांसजेंडर विद्या परिहार की रही। उन्होंने बताया कि बीते कुछ सालों में मीडिया का रवैया उनके समुदाय के प्रति सकारात्मक हुआ है। उन्होंने मीडिया से अपील की, कि उनके समुदाय के बीच से निकलने वाली नकारात्मक ख़बरों को बढ़ा-चढ़ा कर न दिखायें। नकारात्मक गतिविधि में लिप्त लोगों की संख्या बहुत कम है। विषम परिस्थितियों में काम कर रही विद्या के संघर्ष को बहुत गहराई से समझने की जरूरत है।
– वरिष्ठ पत्रकार समीर दीवान ने तथ्यों के साथ खुलासा किया कि बस्तर पर लिखने वाले दिल्ली, चेन्नई के नामचीन पत्रकारों को लोकप्रियता तो बहुत मिल जाती है पर उनका लिखा सच नहीं होता, वे विशेषकर बस्तर के बारे में अपनी टेबल पर बैठकर पुलिंदा तैयार कर लेते हैं और वाहवाही बटोरते हैं।
– आरटीआई एक्टिविस्ट और एक अख़बार के सम्पादक नितिन सिन्हा का मानना था कि यदि हमें समाज से सरोकार है तो सिर्फ़ ख़बर लिखकर संतुष्ट, शांत नहीं हो जाना चाहिए। नितिन ने पूर्व मुख्यमंत्री के कार्यकाल में बनाये गए लाखों फर्जी राशन कार्डों के ख़िलाफ़ न केवल लगातार रिपोर्टिंग की बल्कि अपने ख़र्च से हाईकोर्ट और सुप्रीम कोर्ट तक लड़ाई लड़ी। उन्होंने बताया कि सरकारी वकील ने उन्हें पत्रकार नहीं, बारदाने का व्यापारी बता दिया।
– जिया कुरैशी ने बात की ethics of journalism को ओढ़ना नहीं अपनाना पड़ेगा, पर इसके लिए घर-परिवार को चलाने का रास्ता भी ढूंढना होगा।
– बिलासपुर से राजेश दुआ ने ईमानदारी से कहा कि हरिभूमि और दैनिक भास्कर में काम करने के दौरान वे मालिकों के नजरिये के अनुसार काम करते थे। सिद्धांत या ethics नौकरी करने के दौरान पीछे हो जाते हैं।
– स्मिता शर्मा और कमल दुबे ने प्रदेश के विश्वविद्यालयों में पत्रकारिता पर होने वाली पढ़ाई की कमियों को उजागर किया। मैंने भी इस पर प्रकाश डाला।
– मैंने और रूद्र अवस्थी ने बताया कि कार्पोरेट का दबाव किस तरह से छोटे मुद्दे भी विज्ञापन पाने के लिये अख़बारों को निरीह बना देता है । रूद्र ने अख़बारों में यूनिट हेड को सम्पादक से ज्यादा वजनदार जगह मिलने पर भी सवाल किया।
कुछ साथियों के नाम छूट गये हैं। उनके विचार भी कीमती थे। छत्तीसगढ़ के लगभग सभी हिस्सों से पत्रकार यहां पहुंचे।
जो लोग पत्रकारों से सहानुभूति रखते हैं, उन्हें यह समझना होगा कि इस वर्ग के ज्यादातर लोग लोकतंत्र को मजबूत करने के लिए, समाज को बेहतर बनाने के लिए काम करते हैं। आप उनकी आजीविका के विषम माध्यम पर चर्चा नहीं करना चाहते। संस्थान उन्हें पर्याप्त भुगतान ही नहीं करता और बाहर से सहयोग लेंगे तो यह वसूली और भ्रष्टाचार की श्रेणी में आ जाता है। मीडिया में हर किसी की इंट्री हो सकती है। इंट्री की इस आज़ादी ने बहुत भ्रम फैला रखा है। धारणा ब्यरोक्रेट्स, राजनैतिक, समाज सेवक- हर किसी ने बदल डाली है। पर इसके महत्व को आप नकार नहीं सकते।
इस स्तंभ की निगरानी ही आपको समाज में एक बेहतर वातावरण देने की कोशिश कर रहा है। कल्पना करिये कि किसी दिन मीडिया नहीं होगा तो इस देश में लोकतंत्र का, अभिव्यक्त करने की स्वतंत्रता का क्या होगा?

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