बिलासपुर। (राजेश अग्रवाल)। हबीब खान और उनकी पत्रकारिता की यात्रा पर आज उनके 75वें जन्मदिन पर एक रौशनी डालना जरूरी है। आज भी सेहतमंद, ऊर्जावान, देश और समाज की चिंता पर बेबाक विचार रखने वाले हबीब खान उस दौर के हैं जब अख़बारनवीसी एक मिशन हुआ करती थी। उनकी तस्वीर उतारने की कोशिश है कि बीते एक-दो दशकों से पत्रकारिता कर रहे मित्र उनके नजरिये को समझें और उनमें से कुछ ठीक लगे तो अपने कार्यक्षेत्र, व्यवहार में ग्रहण कर लें।

पत्थलगांव, जशपुर जिले का एक छोटा सा गांव हुआ करता था जो अब एक कस्बा बन चुका है। एक व्यवसायी मोहम्मद खान के वे बेटे हैं। आठ बहनों और चार भाइयों का परिवार, जिनमें चार बड़ी बहनों के बाद पैदा हुए। यानि भाईयों में सबसे बड़े। पत्थलगांव में आगे की पढ़ाई के लिए स्कूल नहीं था। सन् 1959 में बिलासपुर आ गये जहां उनके मामा और फूफा। स्नातक तक पढ़ाई उन्होंने यहीं पर की। इस बीच उनका परिवार भी बिलासपुर आकर रहने लगा। प्रतिभावान थे, सन् 1962 में पॉलिटेक्निक रायगढ़ में उन्हें प्रवेश मिल गया। मैकेनिकल सर्टिफिकेट लेकर लौटे। दो साल तक कोरबा, रायपुर में सरकारी नौकरी की। पर पढ़ने-लिखने की लत पड़ गई थी। नौकरी त्यागकर बिलासपुर वापस आ गये। सीएमडी कॉलेज में बी.एससी. की डिग्री ली। धरसींवा, रायपुर की एक शाला में शिक्षक की नौकरी मिल गई। कुछ दिन बाद उसे भी छोड़ वापस बिलासपुर आ गये। बड़ा साझा-संयुक्त परिवार था। कोई एक आदमी कमाई और नौकरी-चाकरी कर रहा है या नहीं इसे लेकर किसी को शिकायत नहीं। हबीब खान अपने पढ़ने लिखने और घूमने-फिरने के शौक को पूरी करने लगे। रायगढ़ और जशपुर जिले के कई गावों को उन्होंने अपने एक मित्र के साथ पैदल ही नाप लिया। किताबों पर सबसे ज्यादा खर्च करने लगे। अंग्रेजी के महान साहित्यकारों की किताब, उनकी किताबों के हिन्दी अनुवाद को पढ़ते रहे। जो किताबें बिलासपुर में नहीं मिलती थी, डाक से मंगाने लगे। हबीब खान का दावा है कि विदेशी साहित्यकारों की ऐसी कोई किताब उनसे नहीं छूटी है जिसका हिन्दी में अनुवाद हुआ हो।

सन् 1975 में ‘बिलासपुर-टाइम्स’ शुरू हुआ। मोहल्ले का ही अख़बार था। वहां किताबें और कई अख़बार मिल जाते थे। वहां वक्त बिताने लगे। उनके अलावा बिलासपुर की हॉकी का एक जाना-माना चेहरा मिर्जा हसन बेग भी पहुंचते थे जिनकी मालिक डीपी चौबे से ज्यादा नजदीकी थी। एक दिन चौबे ने बेग से कहा- इसे हमारे पास काम पर लगा दो। हबीब खान ने ‘बिलासपुर-टाइम्स’ के बंद होने तक वहां काम किया। इस दौरान वे गंगा प्रसाद ठाकुर, सुधीर सक्सेना और कई अन्य पत्रकारों के सम्पर्क में आये जो यहां सम्पादक हुआ करते थे। यहां की लम्बी सेवा के दौरान ही उनकी यह धारणा दृढ़ हुई कि पत्रकारिता गरीबों, वंचितों की आवाज को बल देने के लिये होनी चाहिये। वे पत्रकारों की तनख्वाह और स्थायीत्व की लड़ाई लड़ने वाले संगठनों के सम्पर्क में आये। बिलासपुर में उनकी अगुवाई में आईजेयू का राष्ट्रीय सम्मेलन हुआ जिसमें देश से ही नहीं विदेशों से करीब तीन सौ पत्रकार पहुंचे। इसमें स्वनाम धन्य प्रभाष जोशी भी शामिल हुए।

बिलासपुर प्रेस क्लब के गठन में सामने डीपी चौबे और गंगा प्रसाद ठाकुर का नाम था। पर सबको जोड़ने का काम किया हबीब खान ने। आज क्लब के संस्थापक सदस्यों में जो जीवित हैं उनमें हबीब खान भी हैं। वे सबको राजी करते थे एक पत्रकारों का संगठन यहां बनना चाहिये। राजू तिवारी, महेन्द्र दुबे, ज्ञान अवस्थी आदि पत्रकारों के घर हफ्ते-दर-हफ्ते जाकर संगठन बनाने की प्रक्रिया पूरी की गई।

बिलासपुर टाइम्स के बंद होने के बाद वे यूएनआई के लिये लिखने लगे। शुरुआती दिनों में उन्हें एक फैलोशिप मिली जिसमें यूरोप और एशिया के कुछ देशों में जाने का मौका मिला। अब तक वे 15 देशों की यात्रा कर चुके हैं। परिवार के कई लोग विदेश में हैं, सो उनके पास भी जाते रहते हैं।

यूएनआई के साथ-साथ वे देशबंधु, सीसीएन और बंसल न्यूज़ के लिये भी काम करते रहे। सभी जगह व्यक्तिगत सम्बन्धों के कारण। लगभग बिना वेतन के। देशबंधु में नथमल शर्मा से, सीसीएन में अशोक अग्रवाल से तथा बंसल न्यूज़ में शरद द्विवेदी के कारण। बंसल न्यूज़ में अब भी फुल टाइम रिपोर्टर कोई और है पर हबीब खान की अपनी जगह है। हबीब खान ने जिन संस्थानों से विदा लिया, वहां दरअसल उन्हें लगा कि उनके पढ़ने की लत में बाधा आ रही है। दूसरी बात संस्थान में जिस व्यक्ति से उनका सम्बन्ध है वह सर्वे-सर्वा नहीं है। प्रबंधन की अलग दिक्कतें और अपेक्षाएं होती हैं।

यूएनआई से जुड़ने के बाद देशभर के समान समझ रखने वाले पत्रकारों जोसेफ जॉन, गिरीश मिश्रा, शरद द्विवेदी से उनकी मित्रता हुई जो अब तक बनी हुई है।

हबीब खान बताते हैं कि उनके बड़े से संयुक्त परिवार में हर कोई पढ़ने-लिखने के कारण ही ऊंचाईयों पर है। न सिर्फ भाई-बहन बल्कि पोते, पोती भी। देश के अलग-अलग कोने में, कोई आस्ट्रेलिया में तो कोई अमेरिका में। कोई सांइटिस्ट है, कोई डॉक्टर तो कोई आर्मी में और कोई इंजीनियर। बिलासपुर में उनके साथ छोटे भाई सईद खान रहते हैं। सईद रसायन शास्त्र में डॉक्टरेट कर चुके हैं और सरकारी कॉलेज के प्राचार्य होकर सेवानिवृत हुए हैं। हबीब खान को छोड़कर बाकी सब की आमदनी बहुत अच्छी है। इसके बावजूद वे अपने पास आई कोई भी सम्पत्ति संभाल नहीं पाते। वे अपने परिवार के नाम कर देते हैं। उनके पास आज कोई जायजाद नहीं है, न बैंक बैलेंस। आज कोई लत नहीं है तो अपना खर्चा भी कुछ नहीं है।

दूसरी ओर हबीब खान के पास रिश्तों की कमाई भरपूर है। वे कहते हैं कि जीवन ने बहुत सबक सिखाया है। एक बार जिससे रिश्ता बन जाये उसे हर कीमत पर निभाने की कोशिश करते हैं। ना कहने की कला भी जानते हैं ताकि आगे कोई झूठी उम्मीद न पाले। सकारात्मक सोच लेकर चलते हैं जो आपको दीर्घायु और स्वस्थ रखने में सहायक है। 75वें वर्ष तक पहुंचते हुए उन्हें रीढ़ और कंधे की बीमारी ने घेर रखा है पर रोजाना इससे मुकाबला करते हैं। पैदल चलने को सेहत ठीक रखने का रहस्य बताते हैं। प्रातःकालीन दिनचर्या में योग भी शामिल है। एक बार उनके लिये ऐसे ही किसी जन्मदिन पर घर के लोगों ने स्कूटर गिफ्ट में दिया। चलाना वे जानते हैं पर स्कूटर को उन्होंने हाथ नहीं लगाया। थक-हारकर घर के दूसरे लोग उसका इस्तेमाल करने लगे।

इसके विपरीत हबीब खान ने अपने जीवन के बहुत साल शराब पीकर खराब किये। लोगों ने उन्हें लुढ़के हुए भी देखा। भतीजे-भतीजियों के बड़े होने के बाद उन्हें अक्ल आई। कुछ घटनाओं का जिक्र करते हुए बताते हैं कि तीस साल पहले उन्होंने एक दिन तय किया आज से शराब बंद। बंद तो बंद, अब तक उन्होंने दुबारा हाथ नहीं लगाया। इसके बावजूद सिगरेट नहीं छूटी। चेन-स्मोकिंग थी, अचानक कैसे छूटे। कोशिश करते-करते 15 साल बाद उसे भी त्याग दिया। आज उन्हें कोई व्यसन नहीं। हबीब खान कहते हैं कि यह पढ़ने की तलब ही थी जिसने उनका आत्म-बल मजबूत किया और व्यसनों से दूर हो पाये।

शादी क्यों नहीं की? ख्याल तो आया, कुछ की तरफ झुके भी। परिवार से भी दबाव बना। फिर ख्याल आया कि वे जिस मिजाज के आदमी हैं उसे क्या कोई महिला बर्दाश्त पायेगी? मेरा अपना हिसाब-किताब ही सही नहीं, किसी और का जीवन ख़राब क्यों करूं? हबीब खान कहते हैं रत्ती भर भी अफसोस नहीं है कुंवारा रहने का। बहुत बड़ा परिवार है। नाती पोते भाई-बहन ही 100 से ऊपर और दोस्तों की संख्या तो उससे भी ज्यादा। अकेलापन लगता ही नहीं। महिला मित्र थीं, आज भी हैं पर सब से सिर्फ मित्रता, व्यक्तिगत गहराई नहीं।

अब पत्रकारिता का माहौल दिल दहलाने वाला है…। जो इस मिशन में आ गये हैं चाहे मजबूरी में लेकिन आ गये हैं तो इसके उसूलों को आत्मसात करें। वे पढ़ने और सीखने का काम करें। इस दौर में हमारी छवि एक याचक की बन रही है। ऐसा नहीं होना चाहिये। अख़बार मालिक और मीडिया की दूसरी विधाएं पत्रकारों का शोषण कर रही हैं। उन्हें अपना परिवार चलाने के लिये बहुत से समझौते करने पड़ रहे हैं। ऐसे में उन्हें ताक़त सिर्फ उनकी अध्ययनशीलता दे सकती है।

हबीब खान के बारे में ‘इवनिंग टाइम्स’ के सम्पादक नथमल शर्मा का कहना है कि वे यारों के यार हैं। उनमें गज़ब की प्रतिबद्धता है। एक दौर था जब अराजकता, लापरवाही उन पर हावी थी पर जब से पत्रकारिता में आये उन्होंने शब्दों को, रिश्तों को नया अर्थ दिया। जब भी लगता है कि किससे सलाह लूं तो हबीब खान ही ध्यान में आते हैं।

सामाजिक कार्यकर्ता सत्यभामा अवस्थी उनके सम्पर्क में सन् 1996 में साक्षरता अभियान के दौरान आईं। वे कहती हैं कि मित्रता के दौरान उन्होंने कभी महसूस नहीं होने दिया कि मैं एक महिला और वे एक पुरुष हैं। मुद्दों पर अब भी झड़प हो जाती है। उनका शानदार व्यक्तित्व है। बहुत कम उम्र के लोगों से भी बराबरी का व्यवहार करते हैं। उन्हें पढ़ने, जानने की लत बड़ी है जो हर किसी को सीखना चाहिये। बस, वे लिखते और बोलते कम हैं।

एक और उनके बेहद करीबी अशोक अग्रवाल, प्रधान सम्पादक ‘लोकस्वर’ कहते हैं कि बिलासपुर के विकास में हबीब खान का  बड़ा योगदान है। हम सब ने इंदिरा सेतु तैयार करने के लिये तत्कालीन कोयला मंत्री पी.ए. संगमा को राजी किया। इस काम में सबसे ज्यादा मुखर हबीब खान ही थे। मोहल्ले का होने की वजह से स्वाभाविक दोस्ती बनी और व्यवसाय के साथ-साथ पत्रकारिता की रुचि को आगे बढ़ाने में उनका बड़ा योगदान है। वे लिखते कम रहे पर लिखने का मसाला पत्रकारों को देते रहे। आज वे घर बैठे देश, दुनिया, शहर की हर ख़बर से वाक़िफ रहते हैं। इस उम्र में उनका जुनून नई पीढ़ी के पत्रकारों के लिये मिसाल है।

हबीब खान से खट्टा-मीठा रिश्ता रखने वाले देश के नामचीन साहित्यकार और वरिष्ठ पत्रकार सतीश जायसवाल कहते हैं कि वे हॉकी खेलते थे। यही खिलाड़ी वाला मिजाज आज भी है। सब को फोन घुमाकर हाल जानना उनके जनसम्पर्क का तरीका है। मोबाइल फोन आने से पहले लैंडलाइन के दौर में भी यह बात रही। जिनसे भी वे रिश्ता बनाते हैं बहुत नजदीक का होता है, आत्मीय होता है। सिद्धांत पर समर्पित हैं। उन्हें कोई किसी क़ीमत पर नहीं खरीद सकता।

व्यक्तिगत रूप से मेरी समझ पर उनका बड़ा असर है। क्या लिखना चाहिये, किस तरह से लिखना चाहिये, किन बातों को लिखने से रुकना चाहिये, यह समझाने में हबीब खान की बड़ी भूमिका रही है।  20 साल पहले मेरे साथ हुई एक दुर्भाग्यपूर्ण घटना में वे तमाम करीबी अधिकारियों और अपने बेहद नजदीकी नेताओं की राय के विरुद्ध मेरे साथ खड़े थे।

वे नास्तिक हैं, प्रणाम करने पर भरोसा नहीं रखते, इसलिये उन्हें उनके 75वें जन्मदिन पर सेल्यूट और शतायु होने की कामना करता हूं।

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