मतदाताओं ने बीते चार दशकों में पार्टी के बजाय नेता ही चुना, कभी असर पोर्ते का भी था

बिलासपुर (राजेश अग्रवाल)। मरवाही छत्तीसगढ़ का अकेला ऐसा विधानसभा क्षेत्र है जहां राज्य बनने के बाद दूसरी बार उप-चुनाव होने जा रहा है। दोनों ही चुनावों के केन्द्र में अजीत जोगी। अब जब उप-चुनाव की तारीखों का ऐलान हो चुका है मरवाही के चार दशक के चुनावी परिदृश्य पर एक सरसरी निगाह डाल लेनी चाहिये।

अजीत जोगी ने 1 नवंबर सन् 2000 को जब मुख्यमंत्री पद की शपथ ली तो वे विधानसभा के सदस्य नहीं थे। छह माह के भीतर उन्हें विधायक बनना जरूरी था। उनके लिये कांग्रेस के कई सदस्य अपनी सीट छोड़ने के लिये तैयार थे लेकिन उनके लिये सीट छोड़ी भाजपा के रामदयाल उइके ने। उइके ने यह सीट कांग्रेस के विधायक पहलवान सिंह मरावी को 12 हजार 297 वोटों से हराकर पहली बार हासिल की थी। भाजपा विधायक ने किन परिस्थितियों में जोगी के लिये सीट छोड़ी यह अलग अध्याय है।

पहले चुनाव में ही जीत का अंतर 50 हजार पार

बहरहाल, मुख्यमंत्री अजीत जोगी ने 2001 का उप-चुनाव लड़ा। उनके मुकाबले भाजपा ने अमर सिंह खुसरो को उनके सामने खड़ा किया जो बुरी तरह परास्त हुए। जोगी को 71 हजार 211 मत मिले और खुसरो 20 हजार 453 मत हासिल कर पाये। जोगी ने रिकॉर्ड 50 हजार 758 मतों से यह सीट जीत ली। इसके बाद तो जोगी परिवार की यह स्थायी सीट बन गई।

सन् 2003 में एक बार फिर जोगी को रिकॉर्ड मतों से जीत मिली। इस बार मैदान में थे भाजपा के कद्दावर आदिवासी नेता नंदकुमार साय। उन्हें 22119 वोट ही मिल पाये और जोगी को मिले 76 हजार 269 वोट। जोगी के नेतृत्व में लड़े गये इस चुनाव में कांग्रेस ने प्रदेश में सत्ता गंवा दी पर उन्होंने मरवाही में जीत का अपना ही रिकॉर्ड तोड़ दिया। इस बार उन्होंने 54 हजार 190 वोट से जीत हासिल की।

2008 के चुनाव में भाजपा ने ध्यान सिंह पोर्ते को मैदान में उतारा। उन्हें 25 हजार 431 वोट मिले और जोगी को मिले 67 हजार 523 वोट। यह चुनाव हुआ तब भाजपा सरकार में थी। जोगी की जीत का फासला करीब 12 हजार कम हो गया। फिर भी 42 हजार 92 वोटों के विशाल अंतर से वे इस सीट को हासिल करने में सफल रहे।

और जब अमित जोगी उतरे मैदान में, फिर रिकॉर्ड टूटा  

2013 में जोगी ने चुनाव नहीं लड़ा। उनकी जगह पर मैदान में आये बेटे अमित जोगी। उन्हें टक्कर देने के लिये भाजपा लेकर आई समीरा पैकरा को। पर इस बार जो नतीजे आये वह अब तक किसी प्रत्याशी को मिले सर्वाधिक वोट हैं। अमित जोगी ने 82,909 वोट हासिल किये जबकि पैकरा को 36 हजार 659 वोट मिले। अमित जोगी इस सीट को 46 हजार 250 वोटों से जीतने में सफल रहे जो उस वक्त विधानसभा में सर्वाधिक अंतर से जीती गई सीट भी थी।

कांग्रेस का निशान छूटा पर जनता का साथ नहीं

2001 से लेकर 2013 तक हुए सभी चार चुनावों में अजीत जोगी और अमित जोगी ने कांग्रेस टिकट पर चुनाव लड़ा पर 2018 आते-आते परिस्थितियां बदल गई। 2016 में जोगी ने नई पार्टी छत्तीसगढ़ जनता कांग्रेस (जोगी) बना ली। बहुत से विश्लेषकों का आकलन था कि जोगी ‘हल जोतता किसान’ जैसा नया चुनाव चिन्ह लेकर मैदान में उतर रहे हैं, उन्हें कड़ी टक्कर मिलने वाली है। पर जोगी ने इस बार भी भारी अंतर से जीत का सिलसिला कायम रखा। जोगी ने 74 हजार 41 मत हासिल किये जबकि प्रतिद्वन्द्वी भाजपा की अर्चना पोर्ते को 27 हजार 579 वोट मिले। जोगी के पंजा छाप को छोड़ते ही कांग्रेस तीसरे स्थान पर आ गई। कांग्रेस प्रत्याशी गुलाब सिंह राज को 20 हजार 40 मतों से संतोष करना पड़ा।

पोर्ते पर भी मरवाही की जनता मेहरबान रही

चुनावी नतीजे बताते हैं कि मरवाही के मतदाताओं ने हरेक अनुकूल-प्रतिकूल परिस्थितियों में जोगी परिवार पर अपना विश्वास जताया । 2003 और 2018 के नतीजों को देखकर कहा जा सकता है कि जोगी के दुबारा मुख्यमंत्री बनने की संभावना के चलते मरवाही ने उन्हें समर्थन दिया। पर 2008 में और जब 2013 में अमित जोगी ने जीत दर्ज की तब ऐसी परिस्थिति नहीं थीं।

कभी ऐसा ही प्रभाव भंवर सिंह पोर्ते का था। मरवाही की जनता ने 1972,  1977  और 1980 के चुनाव में भंवर सिंह पोर्ते को कांग्रेस की टिकट से जीत दिलाई। 1985 में कांग्रेस के ही दीनदयाल पोर्ते ने जीत हासिल की। 1990 में भंवर सिंह पोर्ते ने फिर जीत दर्ज की लेकिन इस बार भाजपा की टिकट पर। इसके बाद 1993 में फिर कांग्रेस के पहलवान सिंह मरावी ने यह सीट भाजपा से छीन ली। जैसा जिक्र हुआ है, 1998 में फिर यह सीट भाजपा के पास के पास चली गई, जब रामदयाल उइके ने जीत हासिल की और बाद में जोगी के लिये यह सीट उन्होंने छोड़ी।

पोर्ते को कांग्रेस के बाद भाजपा से भी झटका

स्व. भंवर सिंह पोर्ते के लिये आखिरी चुनाव पीड़ादायी रहा। कांग्रेस की गुटीय राजनीति के चलते उन्हें 1985 में कांग्रेस की टिकट नहीं मिली। वे भाजपा में चले गये। भाजपा ने उन्हें 1990 में टिकट दी और उसके बाद सुंदरलाल पटवा मंत्रिमंडल में पशुधन विकास मंत्री बनाये गये। यहां पर भी उन्हें गुटबाजी का सामना करना पड़ा। 1993 में जब विधानसभा भंग करने के बाद मध्यावधि चुनाव हुआ तो उनकी टिकट काट दी गई। कांग्रेस में लौटने का रास्ता उन्होंने नहीं चुना। वे निर्दलीय चुनाव मैदान में ‘हल’ चुनाव चिन्ह के साथ उतरे। चुनाव प्रचार अभियान के दौरान ही उनका निधन हो गया। वे शुरुआती दौरे से लौटे थे और रेस्ट हाउस में अटैक आ गया। चुनाव आयोग के नियमों के मुताबिक निर्दलीय प्रत्याशी की मृत्यु हो तो चुनाव स्थगित नहीं किया जाता। पोर्ते कहीं भी प्रचार नहीं कर पाये थे फिर भी उन्हें 7539 वोट इस चुनाव में मिले।

प्रत्याशियों के नाम पर प्रयोग करते रहे दोनों दल

भाजपा ने प्रत्येक चुनाव में विशेषकर छत्तीसगढ़ राज्य बनने के बाद हर बार किसी न किसी नये प्रत्याशी को मैदान में उतारा। कमल छाप के निशान से पहली बार भाजपा 1980 में मैदान में आई तब उन्होंने भगत सिंह को टिकट दी। उस चुनाव में भंवर सिंह पोर्ते को 18894 वोट मिले और भगत सिंह 4538 वोट ही पा सके।

1985 में भाजपा ने अमर सिंह को टिकट दी उन्हें 5993 वोट ही मिले जबकि कांग्रेस से दीनदयाल पोर्ते 16 हजार 215 वोट पाकर विधायक बने।

1990 के चुनाव में भाजपा ने भंवर सिंह पोर्ते को टिकट दी जिन्हें 36 हजार 257 वोट मिले। कांग्रेस से फत्ते सिंह थे जिन्हें 15 हजार 314 वोट मिले।

1993 में कांग्रेस ने पहलवान सिंह मरावी को टिकट दी जो 20 हजार 665 वोट पाकर विजयी रहे जबकि भाजपा ने अमर सिंह को दुबारा टिकट दी। वे 17 हजार 838 वोट पा सके और चुनाव हार गये।

रामदयाल उइके का भाजपा छोड़ना

1998 के चुनाव में कांग्रेस के खिलाफ मतों का अंतर पाटने के बावजूद अमर सिंह को भाजपा ने टिकट नहीं दी। इस बार प्रयोग सफल रहा। किसी कद्दावर चेहरे या उसकी विरासत के बगैर पटवारी पद से इस्तीफा देकर रामदयाल उइके चुनाव मैदान में कूद पड़े। भाजपा में जब उइके शामिल हुए थे तो उन्होंने पटवारी पद से इस्तीफा दिया था। उइके इसी इलाके के बस्तीबगरा से सटे बोकरामुड़ा गांव के रहने वाले हैं।  भाजपा की टिकट पर चुनाव लड़कर तब के विधायक पहलवान सिंह को  उइके ने हरा दिया। बताते हैं कि उन्हें राजनीति में लाने में अधिवक्ता डालूराम अग्रवाल की बड़ी भूमिका रही बाद में उन्हें जोगी से मिलवाने में भी इनकी ही भूमिका रही। जोगी के कार्यकाल में वे उप-महाधिवक्ता भी रहे। तो, जोगी के मुख्यमंत्री बनने के बाद उइके ने विधायकी से त्यागपत्र दिया और भाजपा से भी अलग हो गये।

2001 के उप-चुनाव में जब जोगी ने पहला चुनाव लड़ा तो भाजपा के पास कोई और विकल्प नहीं था। उन्होंने फिर अमर सिंह खुसरो पर ही दांव लगाया। 2003 में भाजपा ने जोगी के खिलाफ जब नंदकुमार साय को टिकट दी तो कहा गया कि वे यहां से चुनाव लड़ने के इच्छुक नहीं थे। साय की राष्ट्रीय स्तर के एक आदिवासी नेता की छवि थी, पर मरवाही के लोगों को उनके कद से कोई लेना-देना नहीं था। वे तो कई सौ किलोमीटर दूर फरसाबहार, रायगढ़ से निकले नेता थे। चुनाव अभियान के दौरान स्थानीय भाजपा नेताओं का उन्हें ठीक तरह से साथ भी नहीं मिला।  चर्चा यह रही कि भाजपा का एक खेमा चाहता था कि साय यहां से लड़े और निपट जायें, क्योंकि उन्होंने राज्य में आदिवासी नेतृत्व की मांग को हवा देकर कई शीर्ष नेताओं को परेशान कर रखा था।

यह बात अलग है कि स्व. बलिराम कश्यप के बाद आज भी नंदकुमार साय की कद का कोई आदिवासी नेता भाजपा में नहीं है चाहे उनके मुकाबले किसी को बड़ा पद क्यों न दे दिया गया हो।

फिर, इसके बाद आया 2008 का चुनाव। तब तक यह साफ हो चुका था कि अजीत जोगी से मुकाबला करना आसान नहीं है। मरवाही के लोग उन्हें किसी कीमत पर अपने से अलग नहीं करेंगे। अजीत जोगी के मुकाबले खड़ा किया गया ध्यान सिंह पोर्ते को। वे दूर दराज से स्व. भंवर सिंह पोर्ते के रिश्ते में आते थे। पोर्ते उप नाम का फायदा मिलने की उम्मीद थी लेकिन नहीं मिला। वे बुरी तरह हारे।

समीरा ने मुकाबले में सबसे ज्यादा वोट बटोरे

सन्  2013 में अमित जोगी ने चुनाव लड़ा। खिलाफ़ में लड़ी जिला पंचायत बिलासपुर की तत्कालीन उपाध्यक्ष समीरा पैकरा। पैकरा ने अपनी जमीन खुद ही तैयार की। अक्सर भाजपा कई बार साधारण कार्यकर्ताओं को टिकट देकर चौंकाती है। पैकरा का चयन भी ऐसा ही था। भाजपा से अब तक लड़ने वाले उम्मीदवारों में सर्वाधिक 36 हजार 659 वोट समीरा पैकरा को ही मिले हैं।

सन् 2018 में परिदृश्य बदला हुआ था। अजीत जोगी ने आखिरी चुनाव अपनी क्षेत्रीय पार्टी जनता कांग्रेस छत्तीसगढ़ से लड़ा। भाजपा ने फिर प्रयोग किया और समीरा पैकरा की टिकट काटकर स्व. भंवर सिंह पोर्ते की बेटी अर्चना पोर्ते को दे दी। अर्चना केवल 27579 वोटों में सिमट गई। मरवाही मे इस बार पहली बार कांग्रेस को अपना उम्मीदवार तय करना पड़ा। जोगी को पछाड़ना उनके लक्ष्य में था लेकिन कांग्रेस प्रत्याशी गुलाब राज 20 हजार 40 वोट पाकर तीसरे स्थान पर ही रह गये।

इस रिपोर्ट को यहां भी पढ़ेंः www.dailychhattisgarh.com 

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