मसौदे पर संयुक्त संसदीय समिति को छत्तीसगढ़ के संगठनों ने अनेक मुद्दों पर चिंता जताते हुए भेजा सुझाव

रायपुर। केंद्र सरकार के वन संरक्षण संशोधन विधेयक 2023 के मसौदे में शामिल किए गए प्रस्तावों पर चिंता जताते हुए छत्तीसगढ़ के अनेक संगठनों ने चेतावनी दी है कि इसको मौजूदा स्वरूप में लागू करने से वनों का तेजी से विनाश होगा। पेसा और वन अधिकार कानूनों को अपूरणीय क्षति होगी। आदिवासी तथा वन में रहने वाले समुदायों के अधिकारों का और अधिक हनन होगा। 

छत्तीसगढ़ बचाओ आंदोलन के सुदेश टीकम, मनीष कुंजाम, विजय भाई, शालिनी गेरा, रमाकांत बंजारे, नंद कुमार कश्यप, आलोक शुक्ला और अन्य कई संगठनों की ओर से इस संबंध में लोकसभा की संयुक्त समिति को सुझाव भेजा गया है। इसमें कहा गया है कि प्रस्तावित संशोधन विधेयक में वन के निवासी स्थानीय समुदायों को पूरी तरह न केवल नजर अंदाज कर दिया गया है बल्कि वन अधिकार कानून 2006 के द्वारा वनों को संरक्षित करने, प्रबंधन करने और उनकी रक्षा करने का जो अधिकार स्थानीय लोगों को मिला हुआ है उसे नकार दिया गया है। प्रस्तावित विधेयक केवल केंद्र सरकार को ही प्राथमिक और सक्षम प्राधिकारी बना देता है जो तय करे कि वनों को किस हद तक गैर वन उपयोग के लिए परिवर्तित किया जाए। तथ्यों से स्पष्ट है कि सरकारें ऐसा अंधाधुंध तरीके से पहले ही करती आ रही हैं। संयुक्त संसदीय समिति को सुझाव दिया गया है कि वन संरक्षण मुख्य कानून की धारा दो और प्रस्तावित विधेयक की धारा 4 में स्थानीय समुदाय की सहमति को अनिवार्य रूप से शामिल किया जाए।

संगठनों ने सुझाव में कहा है कि वन अधिकार कानून के सही अमल नहीं होने के कारण वनों की विशाल भूमि सामुदायिक भवन अधिकार के अंतर्गत दर्ज नहीं हो सकी है। ऐसे अचिन्हित, अवर्गीकृत और अन्य वन क्षेत्रों को 1996 में सुप्रीम कोर्ट ने गोदावरमन फैसले के द्वारा वन का दर्जा दिया था। परंतु इस प्रस्तावित विधेयक में उन विशाल वन क्षेत्रों की भूमि को छोड़ दिया गया है। इसका स्थानीय समुदाय  उपभोग करते आ रहे हैं। प्रस्तावित संशोधन के अनुसार ग्राम सभा इनमें स्वशासन और संरक्षण नहीं कर सकेगी। ऐसे वनों का कोई डायवर्सन होना चाहिए या नहीं इसे लेकर भी ग्राम सभा की सहमति की प्रक्रिया नहीं रखी जाएगी। ऐसे में संगठनों ने सुझाव दिया है कि प्रस्तावित विधेयक में सुप्रीम कोर्ट के निर्णय के अनुरूप ही वन की परिभाषा रखी जाए।

विधेयक में केंद्र सरकार को व्यापक शक्तियां दी गई है। वह किसी भी व्यक्ति या संस्थान को अभिलेख में दर्ज वनों को हस्तांतरित कर सकती है। यही नहीं केंद्र को यह अधिकार भी मिल जाता है कि किसी भी गतिविधि को वनों के संरक्षण विकास और प्रबंधन से संबंधित बताने संबंधी घोषणा या अधिसूचना वह निकाल सकती है। इस प्रावधान से 1980 के एक्ट से गठित फॉरेस्ट एडवाइजरी कमेटी या सुप्रीम कोर्ट के गोदावरमन केस के माध्यम से गठित सेंट्रल एंपावर्ड कमिटी का ढांचा समाप्त हो जाएगा। ये कमेटियां फॉरेस्ट क्लीयरेंस दी जाए या नहीं, इस पर प्रत्येक केस की विशेषताओं पर अच्छे से विचार कर सिफारिश देती है। यदि केंद्र कई प्रकार की कानूनी छूट लेगी तो कमेटिया स्वयं ही अनावश्यक हो जाएंगी। सुझाव दिया गया है कि केंद्र सरकार की शक्तियों को इन कमेटियों के जरिए नियंत्रित और संतुलित करने के प्रावधान को यथावत रखा जाए साथ ही इस संबंध में राज्य सरकार और स्थानीय निकायों और वनों में रहने वाले स्थानीय समुदायों के साथ परामर्श को भी अनिवार्य किया जाए।

संगठनों ने अपने सुझाव में कहा है कि इस प्रस्तावित अधिनियम में बड़ी तादाद में वन भूमि को संरक्षण के दायरे से बाहर कर दिया गया है और उन्हें पर्यावरणीय तथा सामाजिक प्रक्रिया से भी बाहर कर दिया गया है। इनमें रेल एवं सड़क अधोसंरचना, अंतर्राष्ट्रीय सीमा राष्ट्रीय महत्व के प्रोजेक्ट, राष्ट्रीय सुरक्षा से संबंधित प्रोजेक्ट, डिफेंस और पैरामिलिट्री फोर्स के लिए निर्माण और सार्वजनिक हित के प्रोजेक्ट के लिए उपयोग में लाए जाने वाली वन भूमि को शामिल है। उपरोक्त छूट देने का अर्थ है कि इन परियोजनाओं के पर्यावरण प्रभाव वन्यजीवों के परिवेश उनके उन्नत होने की आशंका का कोई अध्ययन ही नहीं किया जाएगा। इसमें सुझाव दिया गया है कि प्रत्येक मामले को उनकी संपूर्णता पर विचार किया जाए, ताकि मूल कानून में आकलन की तथा परामर्शदायी समीक्षा की प्रक्रिया को बनाया रखा जा सके।

गैर वन गतिविधियों की श्रेणी में छूट को व्यापक विस्तार देने पर भी चिंता जताते हुए समिति ने सुझाव दिया है। कहा गया है कि चिड़ियाघर, जंगल सफारी, ईकोटूरिज्म, जैसी गतिविधियों को छूट में शामिल कर देने से जंगलों और वन्य प्राणियों का असंतुलित व्यवसायीकरण होगा जिससे वन आश्रित समुदायों और इकोसिस्टम की आवश्यकता को नजरअंदाज कर दिया जाएगा। इससे बढ़कर खनिजों के लिए प्रोस्पेक्टिंग और सिस्मिक (भूकंप) सर्वे जैसे गंभीर पर्यावरणीय प्रभाव वाली गतिविधियों को भी हटा दिया गया है। इस प्रकार की छूट प्रोजेक्ट संचालकों को और बल देगा जो पहले से ही कानून तोड़ने के लिए मशहूर हैं। पेट्रोल, प्राकृतिक गैस, यूरेनियम जैसे तत्व स्थानीय समुदायों पर विनाशकारी प्रभाव डाल सकते हैं इनके प्रभावों को हल्के में नहीं लिया जा सकता। इस प्रकार की छूट सर्वथा अनावश्यक है और वर्तमान में लागू सभी परामर्श और विचार की प्रक्रिया को यथावत रखा जाए।

संगठन ने अपने सुझाव में यह भी कहा है कि केंद्र में इस तरह से शक्तियों का केंद्रीकरण कर दिया है जिससे वनों के संरक्षण के लिए जो जिम्मेदार हैं उनको ही शक्ति विहीन किया जा रहा है। प्रावधान किया जा रहा है कि इसके अमल के लिए केंद्र, राज्य या केंद्र शासित प्रदेश के अंतर्गत काम करने वाले किसी भी प्राधिकरण को इस विधेयक के लागू होने के बाद निर्देश दिया जा सकेगा। कार्यपालिका के माध्यम से इस तरह शक्तियों का केंद्रीकरण अनावश्यक है और वैश्विक समाज की मूल धारणा के विपरीत है। केंद्र सरकार में सारी शक्तियों का केंद्रीकरण करने के बजाय इस धारा को संशोधित किया जाए और वन संरक्षण के मुद्दों पर व्यापक परामर्श की प्रक्रिया सुनिश्चित की जाए।

संगठनों ने कहा है कि विधेयक की प्रस्तावना में वनों के महत्व पर जोर को दिया गया है परंतु गौर से पढ़ा जाए तो इसके प्रावधान निर्धारित लक्ष्यों के बिल्कुल विपरीत है। विधेयक पर उसकी संपूर्णता में पुनर्विचार किया जाए, ताकि समुदाय और देश को उसका बेहतर लाभ मिल सके।

लोकसभा की संयुक्त समिति को पत्र भेजने वाले संगठनों में जिला किसान संघ राजनांदगांव, छत्तीसगढ़ मुक्ति मोर्चा, अखिल भारतीय आदिवासी महासभा, छत्तीसगढ़ किसान सभा, हसदेव बचाओ संघर्ष समिति, बस्तर जन संघर्ष समिति, जनमुक्ति मोर्चा, दलित आदिवासी मंच, भारत जन आंदोलन, गांव गणराज्य अभियान, आदिवासी जन अधिकार मंच, रिछारिया कैंपेन सहित अन्य संगठन शामिल है।

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