कोयला खदानों के लिये हसदेव अरण्य को उजाड़ने के खिलाफ आदिवासियों ने शुरू की आर-पार की लड़ाई

बिलासपुर (राजेश अग्रवाल)। पथरापाली जाने वाली निर्माणाधीन सड़क पर कोयले से लदी धूल-गुबार उड़ाती, गिट्टियां छिटकाती, धड़धड़ाती भारी-भरकम ट्रकें दिन-रात दौड़ रही हैं। इनसे बचते-बचाते एक किनारे कतारबद्ध करीब 300 आदिवासियों का काफिला तख्तियां उठाये पैदल-पैदल राजधानी की ओर बढ़ रहा है। यह संकल्प लेकर कि हसदेव अरण्य को उजड़ने नहीं देंगे, आखिरी सांस तक अपनी जमीन, जंगल और पानी को बचाने के लिये लड़ेंगे।
हसदेव कैचमेंट एरिया की गोद में बसे सरगुजा और कोरबा जिले के करीब दो दर्जन गांवों से आदिवासी एक बड़ा संकल्प लेकर मदनपुर से 4 अक्टूबर को निकले। यह वही पंचायत है जहां कांग्रेस के तब राष्ट्रीय अध्यक्ष रहे राहुल गांधी ने ग्रामीणों को सभा लेकर आश्वस्त किया था कि यहां एक भी खदान नहीं खुलने देंगे। प्रदेश कांग्रेस के तमाम बड़े नेता भी इस जगह पर मौजूद थे और उन्होंने हामी भरी थी।
यही वादा याद दिलाने के लिये ये आदिवासी अपनी सीमित संसाधनों से यात्रा शुरू कर चुके हैं। 11 दिन तक पैदल चलते हुए करीब 300 किलोमीटर दूर राजधानी रायपुर पहुंचने के लिये एक बड़े हौसले की जरूरत थी। उनके पास एक छोटी मालवाहक गाड़ी में गांव से इकट्ठा किया गया चावल है। कुछ ऐसी सब्जियां साथ लेकर चले हैं, जो कुछ दिन टिक सकें। फिर रास्ते में भी उनके इस आंदोलन से सहमत लोगों की मदद मिल रही है। किसी के पैर में जूते हैं तो किसी के पास सिर्फ चप्पल। मौसम का मिजाज ऊपर-नीचे हो रहा है। कभी बारिश हो रही है तो कभी धूप चिलचिलाने लगती है।
जिस मुकाम से वे निकले वहां से कटघोरा तक नई चौड़ी सड़क बन चुकी है। उदयपुर से कोयला ढोने के लिये यह सुगम रास्ता बना है। बिलासपुर की ओर बढ़ते हुए भी उन्हें अडानी की कंपनी की ठेकेदारी में बनाई जा रही फोरलेन से गुजरना पड़ रहा है। ग्रामीणों को पता है कि ये सड़क भी उनकी जरूरत के लिये तैयार नहीं हो रही हैं, इसलिये है ताकि भारी-भरकम कोयला लदी ट्रकों को दौड़ाने में कोई दिक्कत न हो। सड़क के लिये जगह-जगह जंगल और खेत काट दिये गये हैं। अधूरे निर्माण कार्यों से पूरा रास्ता गर्द और गिट्टियों से भरा है। इसके चलते पदयात्रियों के पैर चुभ रहे हैं, और शरीर धूल से सने हुए हैं। पर इन सबके बारे में वे नहीं सोच रहे हैं। सड़क का एक छोर पकड़कर वे कतारबद्ध चल रहे हैं। उनके चेहरे में आक्रोश है, दर्द है और जोश बनाये रखने के लिये होंठों से फूट रहे गीत और नारे।
चैतमा में जब इनसे मुलाकात हुई तो दोपहर के भोजन के बाद वे सड़क किनारे पेड़ों के नीचे आराम करने रुके हुए थे। इन 300 लोगों में हर उम्र की महिलायें दिख रही थीं, जिनकी संख्या पुरुषों से भी ज्यादा है। करीब 70 साल की मायावती से पूछा गया कि आखिर आप क्यों तैयार नहीं हो जाते कोयला खदान शुरू करने के लिये। बहुत सा रुपया मिलेगा, अच्छी जगह जमीन मिलेगी। हो सकता है रोजगार भी मिले। मायावती और उनके साथ की दो तीन बुजुर्ग महिलाओं ने गुस्से से कहा- नई चाही। कोई पैसा नहीं चाहिये, कोई दूसरी जमीन नहीं चाहिये। जिस जंगल में हम पुरखों से हैं, उसे हम किसी कीमत पर नहीं छोड़ेंगे। हम हर साल तो एक लाख का तेंदूपत्ता तोड़ लेते हैं। एक लाख का बीज और 50 हजार का फल इकट्ठा कर लेते हैं। चार, पान, महुआ के बिना हम नहीं रह सकते। फसल लेते है, हमारे मवेशी हैं, उनके लिये दाना पानी की जरूरत पड़ती है। सब मिल जाता है। खदान के लिये जमीन दे दिया तो हम कहां जायेंगे? उनका रुपया, मुआवजा, उनके बनाये घर, जमीन को हम नहीं लेंगे। और जबरदस्ती लिया तो? महिलाओं ने कहा- हम देंगे ही नहीं, जो आयेगा, भगायेंगे। हम अपनी माई-माटी को नहीं छोड़ेंगे। सरकार को यही बात बताने के लिये तो इतनी बड़ी संख्या में हम कष्ट उठाकर रायपुर जा रहे हैं।
इस यात्रा में स्नातक और पोस्ट ग्रेज्युएट युवा भी शामिल थे। भुवनेश्वर सिंह पोर्ते ने कहा कि हमें रोजगार, नौकरी तो चाहिये पर जमीन खोने की कीमत पर नहीं। दूसरा कोई काम नहीं मिलता है तब भी गांव में जो साधन है, उससे हम गुजारा कर लेंगे। हम खेत जाते हैं, तेंदूपत्ता तोड़ते हैं। पुरखे रहते आये है। यहीं हम पैदा हुए, पले हैं। हमारा अपना जीने का अलग तरीका है। बेदखल हो गये तो हमारा अस्तित्व ही खत्म हो जायेगा।
यात्रा में शामिल ग्रामीणों ने एक स्वर से यह गंभीर आरोप लगाया कि उनका वनाधिकार कानून के तहत पट्टा देने का आवेदन जान-बूझकर खारिज किया जा रहा है। 30-40 साल से जिस जमीन पर उनका कब्जा है उनसे कहा जाता है कि इसे हासिल करने के लिये 75 साल पुराना मिशल लाओ। अब कहां से ले आयें। पटवारी के स्तर पर कहा जाता है कि पात्र हो, ऊपर आवेदन निरस्त कर दिया जाता है। कई ग्रामीण बता रहे हैं कि उन्हें इस शर्त पर पट्टा देने का दबाव बनाया जा रहा है कि वे खदान के लिये भू-अधिग्रहण की सहमति देंगे। यह लालच दी जा रही है कि पट्टे के कारण अच्छा मुआवजा मिल जायेगा। बिना पट्टा बेदखल किये गये तो कुछ नहीं मिलेगा। कंपनी के लोग और कुछ अधिकारी, लोगों को दारू पिला रहे हैं, पैसे बांट रहे हैं ताकि हम सहमत हो जायें। पर हमने तय किया है कि पट्टा तो लेंगे ही, क्योंकि यह हमारा अधिकार है, पर जमीन तब भी नहीं छोड़ेंगे।

चैतमा में इस दौरान एक छोटी सभा भी हुई। इसमें हसदेव अरण्य को कोयला खदानों के आबंटन से बचाने के लिये नेशनल ग्रीन ट्रिब्यूनल से लेकर सुप्रीम कोर्ट तक लड़ाई लड़ रहे सुदीप श्रीवास्तव ने कहा कि जिन आदिवासियों के नाम पर छत्तीसगढ़ को अलग राज्य बनाया गया, आज उनको ही अपने अधिकार के लिये इतनी लंबी पैदल यात्रा करनी पड़ रही है। वन अधिकार, पेसा एक्ट, पांचवीं अनुसूची आपका अधिकार है। आपकी ग्रामसभा सबसे बड़ी है। सरकारों को यह सब पता है, पर वह जोर-जबरदस्ती कर रही है। यह पदयात्रा आपके अस्तित्व की लड़ाई है। आप ऐसी सड़कों पर चलकर राजधानी के लिये निकल गये हैं, जिसे सड़क ही नहीं कह सकते। आप लोग एक इतिहास बना रहे हैं। रेलवे जोन संघर्ष समिति के बद्री करण यादव ने कहा कि हसदेव का जंगल उजड़ गया तो हमारे बिलासपुर की अरपा भी सूख जायेगी। अमृत मिशन योजना के लिये अहिरन नदी के रास्ते से पानी नहीं पहुंच पायेगा। हमारा भी अस्तित्व हसदेव से जुड़ा है।
हसदेव अरण्य बचाओ संघर्ष समिति के संयोजक आलोक शुक्ला ने बताया कि सरगुजा, कोरबा के लगभग दो दर्जन गांवों के लोग इस यात्रा पर स्व-स्फूर्त निकल चुके हैं। केन्द्र और राज्य सरकार दोनों से ही ये आश्वासन चाहते हैं कि जमीन नहीं छीनी जायेगी। सरकार कोल ब्लॉक आबंटन का प्रस्ताव वापस ले।
पदयात्रा रतनपुर, बिलासपुर, सरगांव, धरसीवां होते हुए 13 अक्टूबर को रायपुर पहुंचेगी, जहां उनकी आमसभा होगी और वे अपनी मांगों को लेकर राज्यपाल तथा मुख्यमंत्री से मिलेंगे।
पूरी यात्रा में पद्मश्री मधु मंसूरी का गीत-‘गांव छोड़ब नहीं’ बज रहा है जो लाखों आदिवासियों और पर्यावरण प्रेमियों के लिये प्रेरक गीत है। इसके अलावा वे नारे लगा रहे हैं- फर्जी ग्रामसभा करने वाले अधिकारियों को जेल भेजो…। लोकसभा हो या विधानसभा, सबसे बड़ी है ग्रामसभा…। फर्जी खदान निरस्त करो..। लड़ेंगे, जीतेंगे।
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