-प्राण चड्ढा, वरिष्ठ पत्रकार व वन्य जीव विशेषज्ञ

बिलासपुर। अचानकमार टाइगर रिजर्व के लमनी छपरवा में आदिवासियों के बीच तीन दशक से ज्यादा समय तक शिक्षा की मशाल जगाने वाले प्रो. पीडी खेरा की जीवन ज्योति को सिमटे आज एक बरस पूरा हो गया। वे 92 बरस के थे।

पांच दशक पहले वह दिल्ली विवि के शोधार्थियों के दल को लेकर अमरकण्टक की वादी में रहने वाले अत्यंत पिछड़ी जनजाति  बैगा पर अध्ययन के लिए पहली बार आये। इसके बाद हर साल आते रहे। वे उनके संग ऐसे रमे कि सेवानिवृत्त होने के बाद वानप्रस्थी बन कर यहीं के हो गए। वे बैगा आदिवासियों के सच्चे हमदर्द रहे। उनको वहीं मौके पर चिकित्सा उपलब्ध कराते रहे। वे हाट बाजार की अन्नदूत सेवा से जोड़ने सूत्रधार बने, जंगल के संरक्षक बने रहे।

प्रो. खेरा लमनी से रोज बस से छपरवा के स्कूल जाते और अलग अलग क्लास में अंग्रेजी पढ़ाते, जिससे उनके छात्रों को नौकरी पाने की दौड़ में सहूलियत होती। मेरी उनसे बड़ी पुरानी पहचान रही। चांदनी रात में रेंजर भगत, प्रो खेरा और मैं लमनी बेरियर में साथ बैठ कर चर्चा करते।

उनके कांधे पर लटके खादी के झोले में चना मुर्रा भरा रहता। जिसे वह शाम बच्चों और रात भूखे को बांटते। वो खादी पहना करते थे और जीवन भर पक्के गांधीवादी रहे। लमनी में छोटी सी कुटिया कुछ कपड़े और भोजन का सामान। बस यही उनकी पूंजी बाद मरने के बाद मिली। कौन मानेगा की आज की स्वार्थ और नफरत भरी दुनिया में ऐसा आदमी भी हो सकता है जिसका जीवन जंगल में अभाव में जीते वनवासियों के नाम था।

उनकी निस्वार्थ सेवा पर भी उंगली उठती रही।  एक बार अमरकंटक के किसी साधु ने मुझसे कहा- मुझे तो यह नक्सली लगता है। मुझे बड़ा दुख हुआ, पर मैने जबाव दिया- धोबी के वचनों के कारण ही सीता माता को अग्नि परीक्षा देनी पड़ी थी। वह बहुत शर्मिंदा हुये, मुझसे वचन लिया कभी इस किस्से को उनके नाम से नहीं जोड़ेंगे।

आदमी की उम्र तय है। जो जन्म लेता है उसको जाना होता है। बाप की जगह बेटा, गुरु की जगह शिष्य ले लेता है।  अफसर की जगह नया अफसर आ जाता है, लेकिन आदिवासी के पिता तुल्य प्रो पीडी खेरा जैसा कोई और बनेगा,यह नामुमकिन है।

फेसबुक वाल से

 

 

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