नक्सल प्रभावित बस्तर में यूएपीए और सीएसपीएसए के मामले खत्म करने की उठी मांग

बिलासपुर। राजद्रोह कानून की समीक्षा को लेकर आये सुप्रीम कोर्ट के फैसले के बाद छत्तीसगढ़ में इस कानून का क्या असर होगा, इस पर कई तरह के सवाल उपजे हैं। राज्य में सर्वाधिक चर्चित मामलों में एक पीयूसीएल के छत्तीसगढ़ इकाई के तत्कालीन महासचिव विनायक सेन का रहा है, जिसमें उनको आजीवन कारावास की सजा दी गई। दूसरी ओर आदिवासी अधिकारों के लिए लड़ने वाली सोनी सोरी भी हैं, जो 11 साल लड़ाई लड़ने के बाद इस केस से बेदाग निकल पाईं। इधर बस्तर के आदिवासियों की पैरवी करने वाली अधिवक्ता बेला भाटिया का मानना है कि यहां यूएपीए, सीएसपीएसए, आर्म्स एक्ट आदि में गिरफ्तार मामले ज्यादा गंभीर हैं, जिन्हें खत्म करने पर विचार किया जाना चाहिए।

रायपुर की अदालत ने सेन सहित नक्सली नेता नारायण सान्याल और कोलकाता के व्यवसायी पीयूष गुहा को सरकार के विरुद्ध षड्यंत्र रचने के आरोप में आजीवन कारावास की सजा सुनाई थी। केस दर्ज होने के बाद सेन को सुप्रीम कोर्ट से जमानत मिल पाई थी। इस समय सजा के खिलाफ उनकी याचिका हाईकोर्ट में लंबित है।

यह आम धारणा बनी हुई है कि सरकार अपने विरोधियों को चुप कराने और वोट बैंक मजबूत करने के लिए राजद्रोह का इस्तेमाल करती है। पर कई बार बिना राजनीतिक हस्तक्षेप के भी पुलिस किसी केस को मजबूत बनाने के लिए यह धारा जोड़नी पड़ती है। छत्तीसगढ़ हाईकोर्ट के अधिवक्ता किशोर नारायण का कहना है कि अक्सर सुरक्षाबलों के साथ मुठभेड़ में अथवा ग्रामीणों पर हमले में शामिल नक्सलियों के खिलाफ राजद्रोह जोड़ा जाता है। इसका उद्देश्य होता है कि यदि बाकी साक्ष्य पर्याप्त ना मिल पाए तब भी राजद्रोह की धारा की वजह से अभियुक्त को जल्दी जमानत नहीं मिल पाए।

अधिवक्ता किशोर नारायण कांकेर के पत्रकार कमल शुक्ला का केस भी देख रहे हैं। शुक्ला ने अप्रैल 2018 में सोशल मीडिया पर एक पोस्ट फॉरवर्ड की थी जिसमें आरएसएस प्रमुख मोहन भागवत को न्याय की देवी की तस्वीर के साथ आपत्तिजनक बर्ताव करते हुए दिखाया गया था। इस पोस्ट के बारे में शिकायत होने पर पुलिस ने शुक्ला के खिलाफ राजद्रोह का अपराध दर्ज कर लिया। केस को दर्ज हुए आज 4 साल से अधिक हो गए हैं और पुलिस अब तक शुक्ला के खिलाफ न तो चार्जशीट पेश कर पाई है‌ और न ही प्रकरण के खात्मे के लिए कोई कदम उठाया है। पत्रकार कमल शुक्ला तत्कालीन भाजपा सरकार के खिलाफ लगातार लिखते रहे हैं। हालांकि मौजूदा सरकार के विरुद्ध भी मुखर हैं। कानूनन यदि कोई व्यक्ति किसी प्रकरण में जेल में बंद है तब ऐसे मामलों में चार्जशीट 90 या 180 दिन के भीतर पेश करना पुलिस के लिए जरूरी है, पर जिन मामलों में गिरफ्तारी नहीं हुई है उसके लिए ऐसी कोई समय सीमा तय नहीं है। राजद्रोह का मुकदमा अधर में लटका कर रखने से भी सत्ता की मंशा एक हद तक पूरी हो जाती है।

आदिवासी अधिकारों की लड़ाई लड़ने वाली सोनी सोरी ने भी लंबे समय तक राजद्रोह के मुकदमे का सामना किया। सोनी सोरी तथा उनके सहयोगी लिंगराम कोड़ोपी, ठेकेदार बीके लाला और एस्सार के अधिकारी सी एस वर्मा 11 साल की लंबी लड़ाई के बाद राजद्रोह के आरोप से मुक्त हो पाए। उन पर पुलिस ने नक्सलियों को रुपये पहुंचाने के आरोप में केस दर्ज किया था। सोनी सोरी का मामला राष्ट्रीय स्तर पर सुर्ख़ियों में रहा। सोरी ने पुलिस पर हिरासत के दौरान अत्याचार के गंभीर आरोप लगाए थे।

कई मुकदमों में कोई राजनीतिक दखल नहीं होती न ही पुलिस पर पक्षपात का आरोप लगता है। ठीक 2 साल पहले मई महीने में कांकेर पुलिस ने बिलासपुर के कारोबारी निशांत जैन को गिरफ्तार किया था। सहयोगियों सहित उस पर राजद्रोह का केस दर्ज किया गया। पुलिस के पास पुख्ता सबूत थे कि वे माओवादियों को जूते, रुपये, वर्दी के कपड़े, वायरलेस सेट, बिजली के तार, लेथ मशीन आदि सामग्री पहुंचाने का काम सड़क निर्माण की ठेकेदारी की आड़ में करते थे।

इन दिनों छत्तीसगढ़ में निलंबित एडीजी जी सिंह और कालीचरण के विरुद्ध दर्ज राजद्रोह के मामले की चर्चा जरूर अधिक हुई है लेकिन छत्तीसगढ़ में ज्यादातर गंभीर मामले बस्तर से और नक्सलियों से जुड़े हैं। ऐसे मामलों में राजद्रोह भी सीधे-सीधे दर्ज नहीं है, पर उससे कम कठोर नहीं हैं। अधिवक्ता बेला भाटिया कहती हैं कि बस्तर में हजारों विचाराधीन कैदियों को राहत मिलने के लिए जरूरी है कि सुप्रीम कोर्ट से ऐसे आदेश यूएपीए, सीएसपीएसए के लिए भी आने चाहिएं। लोकतांत्रिक स्थिति तो यही होगी कि ये कानून खत्म कर दिए जाएं। अनेक विचाराधीन कैदी वर्षों से आर्म्स एक्ट, एक्सप्लोसिव एक्ट में भी वर्षों से कैद हैं।

 

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