बिलासपुर। शिवतराई से अचानकमार अभयारण्य में प्रवेश करते ही जगह-जगह वन ग्रामों के लोग सड़क पर प्रो. पी.डी खैरा का अंतिम दर्शन के लिए खड़े थे। उनकी आंखें भरी हुई थीं, कुछ अपने आप पर काबू नहीं कर पा रहे थे और बिलख कर रो पड़ रहे थे। ऐसा लग रहा था मानो उनके सिर से अभिभावक का साया उठ गया हो।

तीन दशक से ज्यादा समय एक कच्ची झोपड़ी में रहकर आदिवासियों के लिए जीवन होम करने वाले प्रो. प्रभुदत्त खैरा मंगलवार को पंचतत्व में विलीन हो गये। सुबह 8 बजे अपोलो अस्पताल से उनका पार्थिव शरीर लमनी के लिए रवाना हुआ। बिलासपुर से निकलते ही जगह-जगह सड़कों पर लोग उनके अंतिम दर्शन के लिए प्रतीक्षारत थे। गनियारी, कोटा के बाद सूनसान रहने वाली शिवतराई, अचानकमार, छपरवा में बच्चे, बूढ़े, महिलाओं ने पुष्प मालाएं अर्पित कर उन्हें श्रद्धांजलि अर्पित की। ग्राम छपरवा में प्रो. खेरा द्वारा संचालित एक स्कूल है, जहां के विद्यार्थी बेहद मायूस दिखाई दे रहे थे। उन्हें यकीन नहीं हो रहा था कि बरसों तक नियमित रूप से उनके बीच आकर उन्हें पढ़ाने वाले और अच्छी बातें अपनाने की सीख देने वाले बाबा अब उनके बीच नहीं रहे।

सरकार तक बात पहुंचाने के लिए बाबा ही थे….

लमनी में जब प्रो. खेरा का पार्थिव शरीर पहुंचा तो वहां के स्कूली बच्चों, महिलाओं का रूदन शुरू हो गया। प्रो. खेरा की झोपड़ी उनकी श्रद्धांजलि के लिए बनाये गए मंच के पीछे ही थी, जहां उनकी 30 साल तक सेवा करने वाले जुगलू मिल गये। उन्होंने बताया कि बाबा सादा खाना खाते थे। कभी-कभी मन रखने के लिए उत्सव वगैरह में उनके अनुरूप थोड़ा खाने-पीने के लिए भी तैयार हो जाते थे। वहां मौजूद महिलाओं से बात करने पर लगा उनका सब कुछ छिन लिया। उन्होंने कहा कि साहब ने इतना पुण्य किया है कि परमात्मा उन्हें अपनी शरण में लेंगे। उनके हाथों से जादू की वर्षा होती थी। पता नहीं कहां से हमारे लिए कपड़े, अनाज, बच्चों के लिए दवाएं, दलिया, मुर्रा लेकर आ जाते थे। महिलाओं ने बताया कि हमें जब भी राशन नहीं मिलता था, चिकित्सा नहीं मिलती थी, पेंशन नहीं आती थी, सरकार तक पहुंचने के लिए कोई और नहीं बाबा ही मिलते थे। वे ही हमारे लिए सरकार के प्रतिनिधि थे।

तीर्थ की तरह उनकी कच्ची झोपड़ी, सहायक का कमरा पक्का

प्रो. खेरा जिस जगह पर रहते थे, वह 120 वर्गफीट की एक कच्ची झोपड़ी है। उसके बगल में इतना ही बड़ा ईंट गारे का कमरा है। जो उनके ही लिये बनाया गया, पर उन्हें वहां रहना रास नहीं आया। उनका सहायक और मेहमानों का वह ठिकाना था। प्रो. खेरा के कमरे में दवाईयों की कुछ शीशियां, रैपर, कुछ किताबें, फाइलें धूल से लिपटी हुई मिली, क्योंकि बीते चार माह बाद इसे खोला गया था। दिल्ली विश्वविद्यालय के प्रोफेसर रह चुके प्रो. खेरा पेंशन के पैसों से एक शानदार जीवन किसी भी महानगर में गुजार सकते थे लेकिन उन्होंने अपनी सारी आमदनी लमनी, छपरवा, अचानकमार के वंचित आदिवासियों के कल्याण पर लुटा दिया। उनके पास जो भी पैसा आता था, बच्चों को पौष्टिक खाना, साफ-सफाई, पढ़ाई लिखाई और बीमारों के लिए दवाओं के काम आता था। एक आदिवासी महिला ने फफकते हुए कहा- अब शाम को उनके बच्चों के लिए चना, मुर्रा, दलिया दाना लेकर कौन आएगा?

मंच के ऊपर एक बैनर पर लिखा था

“लाहौर में पैदा हुए प्रो. खैरा देश विभाजन के बाद दिल्ली आ गए। यहां उन्होंने कुछ दिन एनसीईआरटी में काम किया। दिल्ली विश्वविद्यालय में समाज शास्त्र के प्रोफेसर रहने के दौरान वे कुछ शोधार्थियों के साथ जनजातियों के जीवन का अध्ययन करने के लिए वे अमरकंटक व छत्तीसगढ़ पहुंचे। उन्हें केन्द्र सरकार को आदिवासियों के जीवन स्तर को सुधारने के लिए एक रिपोर्ट तैयार कर भेजनी थी। लमनी, अचानकमार भ्रमण के दौरान वे आदिवासियों का जीवन देखकर व्यथित हो गये। उन्होंने शोध कार्य पूरा होने के बाद रिपोर्ट के साथ छात्रों को वापस भेज दिया। साथ में एक सप्ताह के अवकाश की अर्जी दे दी।” इसके बाद प्रो. खेरा ने सेवानिवृत्ति ले ली और यहीं बस गये।

प्रो. खेरा की सेवा में लगातार रहने वाले सुनील जायसवाल ने उन्हें मुखाग्नि दी। उनकी अपोलो अस्पताल में देखभाल करने वाले संदीप चोपड़े भी लगातार व्यवस्था संभालने में लगे रहे।

 

 

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