गांव की खुशहाली के लिए तमाम ग्रामीणों ने रविवार को रतजगा किया। सोमवार की सुबह प्रभात रैली निकाली और फिर हर कोने पर ग्राम देवताओं को पूजन कर प्रसन्न किया गया। अनुष्ठान सम्पन्न होते तक गांव में कर्फ्यू जैसा माहौल था। लोगों का पानी भरना खाना खाना मना था। पूजन के बाद गांव वालों ने उत्सव मनाया।

मौका था, कोई डेढ़ दशक बाद बिलासपुर से करीब 9 किमी दूर गांव सैदा में ‘बिदूर’ का आयोजन। शनिवार की शाम 6 बजे गांव में हंकारे ने ‘बिदूर’ की खबर ऊंची आवाज में गाँव की गली-गली तक पहुंचा दी थी।

सारी रात गांव के श्रद्धालु सोए नहीं। उन्होंने पूरी रात देवी जस गान ढोल-मंजीरे के संग किया। रात आंखों-आंखों में कट गई। सुबह तालाब के किनारे कीर्तन करते गांव के लोग बाहर स्थापित ग्राम देवता के पूजन के लिए कतार में बढ़ चले।
पूरा गांव बन्द था। महिलाएं जल भरने भी घर से नहीं निकलीं। एक- एक कर गांव के इर्द गिर्द स्थापित सभी ग्रामदेवताओं को जागृत करने का परम्परागत अनुष्ठान किया गया।

गांव के एक प्रमुख ने बताया कि इस अनुष्ठान में बकरे की बलि दे भी जाती है। कुछ बकरों को पूजा बाद गांव में छोड़ दिया जाता है, जिसे “ठाकुर देव” के नाम से जाना जाता है। ये उन्नत नस्ल के होते हैं जो बीमार बन ‘सांड’ सा जीवन बिताता है। पहले बिदूर का आयोजन तीन माह के अंतराल में होता रहा। इस बार सैदा में यह आयोजन करीब 15 साल बाद हुआ।

आज सुबह कोपरा में पक्षियों की तस्वीरें कैद करने के लिए वरिष्ठ पत्रकार प्राण चड्ढा सैदा के समीप स्थित कोपरा जलाशय के लिए निकली थी। उपरोक्त वाकया उन्होंने अपने फेस बुक पर शेयर किया है।
चड्ढा ने बताया कि सुबह कोपरा बर्ड फोटोग्राफी जाते हुए मैं भी इनके साथ शामिल हो गया। खेतों में धान की फसल खड़ी है, कटाई में कुछ वक्त है। इसलिए गांव के प्रमुख लोगों ने बिदूर की सहमति बनी और इस अनुष्ठान का आयोजन किया गया।
सुबह साढ़े आठ बजे करीब 17 जगह ग्राम देवताओं को प्रसन्न कर लिया गया था, लिहाजा ऊंचा तगड़ा हँकारा गांव में बुलंद आवाज में जानकारी देने निकला। उसने खबर फैला दी कि ठाकुरदेव की पूजा हो गयी है, अब महिलाएं पानी भर लेवें।

पत्रकार प्राण चड्ढा बताते हैं कि गांवों में पहले यह मजबूत मान्यता थी कि बीमारियों और विपत्तियों से बचाने के लिए गांवों में देवताओं की कृपा बनी रहनी चाहिए। उन्हें प्रसन्न रखने के लिए इस तरह का अनुष्ठान आम तौर पर होता था। अब भी ग्राम देवताओं को प्रसन्न करने के लिए यह परम्परा चली आ रही है। फसल कटने से पहले कुछ दिन गांव में लोग खाली होते हैं और इसी बीच त्यौहारों, पर्वों का सिलसिला चल पड़ता है। नवरात्रि, दशहरा, दीपावली, एकादशी और इसी दौरान गांवों में गम्मत, नवधा रामायण, रामलीला का आयोजन किया जाता है। शहर से लगे सैदा के ग्रामीणों ने बिदुर का आयोजन इसी क्रम में किया जो उनके बाद की पीढ़ी के लिए अनोखी है।

(आप इसे प्राण चड्ढा जी के फेसबुक पेज पर देख सकते हैं)

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