आत्महत्या रिपोर्टिंग पर मीडिया संवेदीकरण विषय पर कार्यशाला

बिलासपुर। आत्महत्या की ख़बरों को सनसनी की तरह पेश करने के परिणाम अनुकूल नहीं होते। शीर्षक, सामग्री और चित्र की प्रस्तुति में सावधानी बरतने की जरूरत होती है। प्रस्तुति इस तरह होनी चाहिए कि  मानसिक तनाव या विकार से लोगों को मुकाबला करने की ताकत मिले।


आत्महत्या रिपोर्टिंग पर मीडिया संवेदीकरण विषय पर आयोजित एक कार्यशाला में यह बात कही गई। जिला विधिक सहायता प्राधिकरण के सचिव ब्रजेश राय ने कहा कि  आत्महत्या आज कल एक आम बात बन गई है लेकिन जीवन का अंत करना समस्या का समाधान नहीं होता। हम सबका कर्तव्य बनता है ऐसी सोच वाले लोगों कि हर प्रकार से सहायता करें ताकि वह जीवित रह सकें । कार्यशाला का आयोजन राष्ट्रीय मानसिक स्वास्थ्य कार्यक्रम और नई दिल्ली स्थित सेंट्रल फोर एडवोकेसी एंड रिसर्च ने मिलकर किया था। इसका उद्देश्य पत्रकारों को आत्महत्या कि रिपोर्टिग के बारें में संवेदंशील बनाना था ।

इस मौके पर राज्य मानसिक स्वास्थ्य चिकित्सालय सेन्दरी के अधीक्षक डा.बीआर नन्दा ने कहा कि मानसिक स्वास्थ्य पर जन जागरूकता लाने की ज़रुरत है। इसमें मीडिया को अहम भूमिका निभानी है। उन्होंने बताया विश्व भर में हर साल लगभग आठ लाख आत्महत्याएं होती हैं जिनमें से 21 प्रतिशत भारत में होती  हैं ।

राष्ट्रीय अपराध  रिकॉर्ड ब्यूरो (एनसीआरबी) 2015  के अनुसार 27.7 प्रति एक लाख व्यक्ति की दर के साथ छत्तीसगढ़ देश में सर्वाधिक आत्महत्या वाले राज्यों में से एक है । दो करोड़ साठ लाख की जनसंख्या वाले इस राज्य के ज़िले दुर्ग-भिलाईनगर में आत्महत्या की दर सर्वाधिक 34.9 प्रति एक लाख व्यक्ति है, जो कि 10.6 के राष्ट्रीय औसत से बहुत अधिक है ।

आत्महत्या या आत्महत्या के प्रयास विभिन्न कारणों से किये जाते हैं, जैसे घरेलू समस्यायें, परीक्षाओं में असफलता या नशे की आदत। शोधों में यह पाया गया है कि मीडिया में आत्महत्याओं पर आने वाली ख़बरें बाकी लोगों को उन तरीकों की नकल कर वैसा ही कदम उठाने के लिए प्रेरित करती हैं  । इसे कॉपी कैट इफ़ेक्ट कहा जाता है ।

एक ही समय में कई अलग अलग चीज़ों के अचानक बिगड़ जाने से उत्पन्न हुई स्थिति परिणामस्वरूप  आत्महत्या की घटनाओं को पैदा करती है । इसका कोई एक कारण नहीं होता है और न ही ये प्रवृत्ति किसी एक विशेष प्रकार के व्यक्ति में पाई जाती है । इसके जैविक कारण भी हो सकते हैं जैसे आनुवांशिकी (जेनेटिक्स), पूर्वानुमानित कारण जैसे न्यूरोलॉजिकल विकार या नशे की आदत, या अचानक उद्वेलित कर देने वाले अन्य कोई कारण जैसे निराशा, लोगों के बीच किसी कारणवश शर्मिंदगी या उसका भय होना, संसाधन तक पहुँच होना, कोई बड़ी असफलता या नुकसान होना।

इस विषय की गंभीरता को संज्ञान में लेते हुए विश्व स्वास्थ संगठन ने 2008 में आत्महत्या पर रिपोर्टिंग के लिए मीडिया दिशानिर्देश बनाये।  ये दिशानिर्देश पत्रकारों को आत्महत्या से जुड़ी ख़बरों की संवेदनशील रिपोर्टिंग करने की सलाह व मार्गदर्शन देते हैं । दिशानिर्देश इन रिपोर्टों के शीर्षक लिखने में सावधानी बरतने की सलाह भी देते हैं । इसके साथ ही ऐसी रिपोर्टों को सनसनीखेज़ न बनाने और आत्महत्या के तरीकों को विस्तार से न बताने की वकालत भी करते हैं । एक ऐसे समय में जब अधिक से अधिक लोगों की पहुंच पारंपरिक और सोशल मीडिया तक होती जा रही है, आने वाले समय में स्थितियों के और बिगड़ने की संभावना है ।

इन स्थितियों में ये बहुत आवश्यक है कि लोगों को आत्महत्या के विषय पर जागरूक किया जाये । पैरोकारी की इस प्रक्रिया में मीडिया की महत्त्वपूर्ण भूमिका है।

कार्यशाला में निम्न बिन्दुओं पर प्रकाश डाला गया :
  1. मीडिया को ऐसी भाषा का प्रयोग नहीं करना चाहिए जो आत्महत्या को सनसनीखेज़ या फिर एक सामान्य सी बात बनाती हो या इसे समस्याओं के हल के तौर पर दिखाती हो। अक्सर देखा गया है कि लोगों का ध्यान आकर्षित करने के उद्देश्य से शीर्षक सनसनीखेज़ बनाये जाते हैं। अधिकाँश रिपोर्टों के लिये ये न्यायोचित हो भी सकता है लेकिन आत्महत्या पर रिपोर्ट लिखते समय ऐसा बिल्कुल भी नहीं है क्योंकि ये पाठक पर नकारात्मक प्रभाव डालते हैं। इस बात पर ध्यान देना भी ज़रूरी है कि शीर्षक सनसनीखेज़ न बनाये जायें । शीर्षक में आत्महत्या शब्द को इस्तेमाल करने से बचा भी जा सकता है ।
  2. आत्महत्या की रिपोर्टों को पृष्ठ में मुख्य स्थान पर लगाने व उनके ग़ैर ज़रूरी दोहराव से बचना जनहित के लिए एक अच्छा प्रयास हो सकता है । इसके साथ ही आत्महत्या या आत्महत्या की कोशिश में अपनाये गए तरीकों को विस्तार से बताने से बचें ।
  3. जहाँ तक सम्भव हो रिपोर्ट में मृत व्यक्ति की फ़ोटो का इस्तेमाल करने से बचें ।
  4. रिपोर्ट को इस तरीके से लिखा जा सकता है कि उसमें इस्तेमाल किये गये तरीके के बारे में न बताया जाये और इसका खबर पर कोई प्रभाव भी न पड़े ।
  5. आत्महत्या करने वाले व्यक्ति के परिवार जनों के प्रति संवेदनशीलता दिखायें और ये जानकारी दें कि आत्महत्या की प्रवृत्ति देखने पर कहाँ से मदद लें । आत्महत्या की रोकथाम के लिए किये जा रहे प्रयासों में एक ज़रूरी पक्ष ये समझना भी है कि मीडियाकर्मी स्वयं भी आत्महत्या की ऐसी रिपोर्टों से प्रभावित हो सकते हैं ।

 

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