-प्राण चड्ढा, वरिष्ठ पत्रकार

जायका और यादें सदा बनी रहती हैं।  इसके दर्पण में वक्त की धूल पोछ दें, सब साफ दिखता है। कल शाम मेरी पत्नी कृष्णा, मॉल के करीब प्रतिष्ठित मौसाजी के प्रतिष्ठान से मेरे लिए अखरोट आकार के कुछ आलूगुंडा लेकर आई। उसके आकार और स्वाद से मुझे करीब पचास साल पूर्व श्याम टाकीज के करीब उस बूढ़ी मां की याद आयी जो शाम के वक्त टोकनी में इसी तरह के आलूगुंडा लाकर एक रुपये में दो, चटनी के साथ बेचती थी। कुछ देर में ये गरम-गरम सब बिक जाता। आज वहां पता लगा बूढ़ी मां का नाती सफल सीए बन गया है।

बस यादों का कारवां तेजी से चल पड़ा। श्याम टाकीज की जर्जर हालत पर रोना आया। इसके ठीक सामने जोगेन्दर का ठेला लगता जहां छोले कोफ्ते और भटूरे मिलते।
सन्त भगतराम कंवर मार्केट के गेट पर शाम सिंधी भाई कमल ककड़ी के भजिये तलता जाता और वह बिकते जाते। इमली की सूखी और पानीदार चटनी तो बाल्टी भर बिकती।

शनिचरी बाजार में एक छोटा सा होटल पोपटमल का था। करेले की पीस और प्याज की कोयले की आंच में सब्जी बनती, उसका जायका याद है। उस पर हरी धनिया पत्ती स्वाद को और बढ़ाती। मेरा और मेरे मित्र प्रकाश त्रिपाठी का यह सबसे पसन्दीदा होटल था। वह उल्टे तवे पर आटे की पतली लजीज रोटी बनाता। वैसी सुस्वादू रोटी फिर नहीं मिली।
जब बात मित्र प्रकाश की चली है तो कुछ और..। उसने और मैने एक-एक हाइना याने लकड़बग्घा पाला हुआ था। उसका हाइना शनिचरी बाज़ार में मछली वाले शमशेर भाई के यहां बंधा रहता। और शकील भाई उसकी देखरेख करते, देखते देखते हाइना तीन साल के हो वयस्क हो गए। कभी-कभी श्री प्रकाश और मैं संध्या उसे रिक्शे पर घूमते तो वह बड़ा खुश होता। तब सेल्फी का जमाना नहीं था। नहीं तो सेल्फी विथ हाइना वालों की भीड़ लग जाती।
शाम हम लोग गोड़पारा के बजंरग अखाड़े पहुंचते। पहलवान दुलारू हमारे उस्ताद थे। साथी पहलवान, श्यामू, भददू सोनी, दिनेश दुबे, प्रताप यादव, फ़र्जन ईरानी, मल्लू भाई, जालिम उस्ताद, उमा यादव और अरविंद दुआ थे। श्रीप्रकाश के अनुज जयनारायण त्रिपाठी ने बड़ी कुश्ती दम-खम पर मारी थी। उनके पुत्र संजू से मेरी मुलाकात नहीं हो पाई।
अखाड़ा जाने वाले और अरपा नदी में पुल से बाढ़ में कूदने वालों की टोली थी। जिसमें मेरे अलावा उमेश मिश्रा, किशन और श्याम गुलहरे, मोहन के नाम याद रह गए हैं। आज की सूखी अरपा में उस पुल से कूदना याने मौत को दावत देना है।
हां, तो बात जायके की हो रही रही थी। गोलबाजार में अली हुसैन, शुक्ला जी को कैसे भुलाया जा सकता है। लजीज बिरयानी और कोरमा, लोग दूर तक के खाने आते, वैसा स्वाद अब नहीं मिलता ।
पहलवानी के लिये रियाज और दांवपेंच के साथ जरूरी थी बढ़िया खुराक। बस शाम गोलबाज़ार के प्रसिद्ध पेंड्रा वाले कि घी में बनी खोये की जलेबी और करीब कल्लामल के दूध की दुकान से मलाई रबड़ी को मिला कर सन्ध्या का नाश्ता। तब तक मेरी दोस्ती, सकर्रा वाले दिलदार भरत शर्मा से हो गयी। वह भी इस नाश्ते में शिरकत करते। फिर वह दौर आया कि नाइट कालेज में लॉ की पढ़ाई में लग गया, यह जायका,खाड़ा और दोस्त जाने कब बिखर गए।

 

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