हाईकोर्ट किशोर न्याय समिति की राज्य स्तरीय सम्मेलन आयोजित

बिलासपुर। हाईकोर्ट के मुख्य-न्यायाधीश जस्टिस पी. आर. रामचंद्र मेनन ने कहा है कि विधि का उल्लंघन करने वाले बच्चों के लिए रोटी, कपड़े ही नहीं बल्कि उनके व्यक्तित्व के विकास के लिए भावनात्मक सहारे की आवश्यकता है।

हाईकोर्ट ऑडिटोरियम में विधि से संघर्षरत बच्चों को संप्रेक्षण एवं सुधार गृहों से अधिक बेहतर वातावरण देने पर विचार विमर्श के लिए एक राज्य स्तरीय सम्मेलन का आयोजन छत्तीसगढ़ हाईकोर्ट की किशोर न्याय समिति एवं राज्य न्यायिक अकादमी की ओर से किया गया। इसके उद्घाटन सत्र में चीफ जस्टिस मेनन ने कहा कि एक से 18 वर्ष के लाखों बच्चों को अपने अभिभावकों के साथ रहने का अवसर नहीं मिलता है। इनमें से वे भी हैं जो संरक्षण गृहों में हैं, जहां भोजन व शारीरिक विकास की जरूरतें तो पूरी हो रही हैं पर इनके व्यक्तित्व विकास के बाकी आयामों पर बहुत काम करने की आवश्यकता है। राज्य और कानून के दायरे से बाहर इस बारे में दुनिया भर में सोचा जा रहा है। दुर्भाग्य से यह माना जा रहा है कि इन बच्चों के संरक्षण के लिए मौजूदा प्रणाली संदेह से परे नहीं है और उन्हें पारिवारिक माहौल देने पर जोर दिया जा रहा है। उन्होंने एक व्यवहार वैज्ञानिक मिसलर का उदाहरण देते हुए कहा कि जीवन की आवश्यकताएं पिरामिड की तरह हैं। रोटी, कपड़ा और मकान मूलभूत जरूरतें है पर इसके बाद भावनात्मक संरक्षण, शिक्षा, मनोरंजन और स्वयं की पहचान बनाने की क्रमिक रूप से आवश्यकता पड़ती है। इसके लिए डि-इंस्टीट्यूटशनलाईजेशन अर्थात् विधि संघर्षरत बच्चों को सुधार गृहों से बेहतर वातावरण देना, एक अच्छा विकल्प है।
जस्टिस मेनन ने कहा कि देश के विभिन्न उच्च-न्यायालयों में इसी तरह के राज्य स्तरीय सेमिनार के आयोजन किये जा रहे हैं ताकि विधि संघर्षरत बच्चों के सर्वांगीण विकास के लिए अच्छे सुझाव सामने आ सकें और वे देश के एक जिम्मेदार नागरिक बन सकें। उन्होंने सेमिनार के प्रतिभागियों से कहा कि वे सिर्फ श्रोता नहीं बनकर रहें बल्कि इसके लिए बेहतर सुझाव लायें, जिसे नवंबर माह में राष्ट्रीय स्तर पर इस विषय पर होने वाले सम्मेलन में रखा जा सके।
कार्यक्रम में स्वागत उद्बोधन देते हुए हाईकोर्ट किशोर न्याय कमेटी के सदस्य जस्टिस आर. सी.एस. सामन्त ने कहा कि प्रत्येक बच्चे को एक अच्छे पारिवारिक वातावरण में मानसिक व शारीरिक विकास का अवसर प्राप्त करने का अधिकार है लेकिन लाखों बच्चे ऐसे हैं जिन्हें यह माहौल नहीं मिल पाता है। भारत सहित दुनिया भर में मौजूदा कानूनों का अध्ययन करने के बाद और बहुत से अनुभवों के बाद यह निष्कर्ष निकाला गया है कि बच्चों के स्वस्थ विकास के लिए और व्यापक स्तर पर प्रयास किये जाने चाहिए। बच्चों के देखभाल की प्रणाली में सुधार के लिए डि-इंस्टीट्यूशनलाइजेशन ( सुधार व संरक्षण गृहों से बाहर लाना) एक प्रक्रिया है। इसके लिए व्यापक स्तर पर एकीकृत बाल संरक्षण की योजना पर काम करना होगा। ऐसे बच्चों के लिए फॉस्टर केयर पैरेन्ट्स (पोषण की जिम्मेदारी लेने वाले अभिभावक) और एडॉप्शन (गोद लेना)  विकल्प है।  फॉस्टर केयर अभिभावक का दायित्व एकल या समूह में भी लिया जा सकता है।
छत्तीसगढ़ राज्य विधिक सेवा प्राधिकरण के अध्यक्ष जस्टिस प्रशांत मिश्रा ने इस मौके पर कहा कि विधि का उल्लंघन करने वाले बच्चों की देखभाल और सुरक्षा के लिए नैसर्गिक वातावरण की आवश्यकता होती है। जब ऐसा कोई बच्चा महसूस करता है कि वह सामान्य नहीं है और समाज उसे पसंद नहीं करता है तब उस पर विशेष ध्यान देने की आवश्यकता होती है। जस्टिस  मिश्रा ने बताया कि सुप्रीम कोर्ट के जस्टिस दीपक गुप्ता ने इस सम्बन्ध में अपनी रोमानिया यात्रा का अनुभव बताया है। इसमें उन्होंने जानकारी दी है कि वहां बच्चों के डि-इंस्टीट्यशनलाइलेजशन के लिए अच्छा काम हो रहा है। अमेरिका और रूस जैसों देशों ने इस मॉडल को अपनाया है। राजस्थान और महाराष्ट्र में भी इस दिशा में काम कर रहे हैं। विश्वास है कि इस कांफ्रेस के माध्यम से भी सार्थक विकल्प सामने आयेंगे।
उद्घाटन सत्र में चीफ जस्टिस मेनन ने किशोर न्याय बोर्ड और बाल संप्रेक्षण गृह के बीच वीडियो कांफ्रेंसिंग सुविधा की शुरूआत की। जस्टिस  मिश्रा ने बिलासपुर व रायपुर के बाल संप्रेक्षण गृह के बच्चों से कांफ्रेंसिंग के माध्यम से बातचीत की।
किशोर न्याय समिति, हाईकोर्ट द्वारा प्रकाशित बुकलेट नवोदया का विमोचन चीफ जस्टिस ने किया। राज्य न्यायिक अकादमी के निदेशक  के.एल. चेरयानी ने आभार प्रदर्शन किया।
सेमिनार के प्रथम तकनीकी सत्र में महिला बाल विकास विभाग के सचिव  सिद्धार्थ कोमल परदेशी ने पावर प्वाइंट प्रेजेन्टेशन के माध्यम से बच्चों के लिए विभाग द्वारा संचालित योजनाओं व कार्यों की जानकारी दी। उन्होंने बताया कि प्रदेश में बच्चों के लिए बाल संप्रेक्षण गृह, किशोर न्याय बोर्ड, स्पेशल होम, शेल्टर होम, चाइल्ड हेल्प लाइन सर्विसेस आदि संचालित हैं। आंकड़ों के जरिये उन्होंने बताया कि हम अधिक बच्चों को पुर्नवास देने में सफल हो रहे हैं। इस तरह से हम डि-इंस्टीट्यूशनलाइजेशन की दिशा में ही काम कर रहे हैं। उन्होंने कहा कि जो बच्चे संप्रेक्षण गृहों में 18 वर्ष से अधिक उम्र के, अर्थात् युवा हो जाते हैं उनके लिए पुनर्वास का राज्य और केन्द्र स्तर पर ठोस कार्यक्रम बनाये जाने की आवश्यकता है। दूसरे कई देशों में ऐसे युवाओं के पुनर्वास के लिए आर्थिक सहायता और आवास दिये जाते हैं।
इसी सत्र में यूनिसेफ की ओर से शेषाग्री मधुसूदन और छत्तीसगढ़ राज्य विधिक सेवा प्राधिकरण के सदस्य सचिव  सिद्धार्थ अग्रवाल ने भी प्रेजेन्टेशन दिया। इस क्षेत्र में काम कर रहे विशेषज्ञों और एनजीओ ने भी पुनर्वास, सुधार व डि-इंस्टीट्यूशनलाइजेशन पर किये जा रहे अपने कार्यों का प्रेजेन्टेशन दिया।
द्वितीय तकनीकी सत्र में राज्य के विशेष किशोर न्याय बोर्ड के पुलिस यूनिट के प्रभारी, महिला एवं बाल विकास विभाग के प्रतिनिधि, पास्को एक्ट के अंतर्गत स्थापित विशेष न्यायालय के पीठासीन अधिकारी, किशोर न्याय बोर्ड के प्रिंसिपल मजिस्ट्रेट, जिला विधिक सेवा प्राधिकरण के सचिव व बाल कल्याण समिति के चेयरपर्सन ने प्रेजेन्टेशन दिया।
सम्मेलन में हाईकोर्ट के जज जस्टिस  गौतम चौरड़िया, जस्टिस शरद कुमार गुप्ता, रजिस्ट्रार जनरल नीलम सांकला, छत्तीसगढ़ विधि विभाग के प्रमुख सचिव रविशंकर शर्मा, आईजी सरगुजा के. सी. अग्रवाल, विभिन्न जिलों के किशोर न्याय बोर्ड, बाल संप्रेक्षण गृहों के प्रतिनिधि, महिला एवं बाल विकास अधिकारी उपस्थित थे।

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