मरवाही से चुनाव लड़ने का फैसला लेते ही नेताम पहुंच गये थे अनुसूचित जनजाति आयोग

बिलासपुर। पूर्व मुख्यमंत्री अजीत जोगी की जाति को लेकर संतकुमार नेताम की शिकायत 18 साल पुरानी है जब जोगी ने तत्कालीन विधायक रामदयाल उइके के इस्तीफा देने के बाद मरवाही सीट से चुनाव लड़ने का फैसला लिया। नेताम के पक्ष में भाजपा के दिग्गज वकील सुप्रीम कोर्ट और हाईकोर्ट में पैरवी कर चुके हैं लेकिन नेताम को पूर्व मुख्यमंत्री डॉ. रमन सिंह को लेकर शिकायत थी। नेताम ने भाजपा छोड़कर अब कांग्रेस की सदस्यता ले ली है।

सिविल इंजीनियर संतकुमार नेताम भाजपा के अनुसूचित जाति प्रकोष्ठ में पदाधिकारी थे जब सन् नवंबर 2000 में मुख्यमंत्री अजीत जोगी ने पद संभाला। उनकी जाति को लेकर नेताम ने पहली शिकायत राष्ट्रीय अनुसूचित जाति जनजाति आयोग को की। यह मुद्दा उनके सामने तब आया जब मरवाही सीट से भाजपा के तत्कालीन विधायक रामदयाल उइके ने इस्तीफा दे दिया और इस सीट से जोगी की उम्मीदवारी घोषित की गई। उस समय आयोग के अध्यक्ष दिलीप सिंह भूरिया थे। आयोग ने 16 अक्टूबर 2001 को अजीत जोगी का आदिवासी जाति प्रमाण पत्र निरस्त कर दिया। भूरिया कमेटी ने छत्तीसगढ़ के तत्कालीन मुख्य सचिव को जोगी के ख़िलाफ़ एफआईआर दर्ज करने का निर्देश भी दिया। इस आदेश को छत्तीसगढ़ हाईकोर्ट में चुनौती दी गई। तत्कालीन चीफ जस्टिस की कोर्ट ने आयोग के फैसले पर 22 अक्टूबर 2001 को स्थगन दे दिया। इस मामले में नेताम भी प्रतिवादी थे।  मामले की सुनवाई होती रही। नेताम की ओर से पैरवी करने सुप्रीम कोर्ट से अरूण जेटली (स्व.) और रविशंकर प्रसाद भी पहुंचे।  इसके बाद 15 नवंबर 2006 को हाईकोर्ट ने इस मामले में फैसला दिया। कोर्ट ने कहा कि आयोग को किसी की जाति निर्धारित करने या उसका प्रमाण पत्र रद्द करने का अधिकार नहीं है। कोर्ट ने नेताम पर 10 हजार रुपये का दंड दिया, साथ ही कहा कि इस केस में पक्षकार और सरकार के खर्च की वसूली भी उनसे की जाये।

जनवरी 2007 में इस फैसले के ख़िलाफ़ नेताम ने सुप्रीम कोर्ट में अपील की। वहां भी नेताम के पक्ष में स्व. अरूण जेटली के अलावा रविशंकर प्रसाद और राजीव धवन जैसे नामी वकीलों ने पैरवी की।

सुनवाई लम्बी चली। 13 अक्टूबर 2011 को सुप्रीम कोर्ट का फैसला आया। इसमें राष्ट्रीय अनुसूचित जनजाति आयोग को जाति निर्धारण का अधिकार नहीं होने के हाईकोर्ट के फैसले को यथावत रखा गया लेकिन राज्य सरकार को ‘माधुरी पाटिल केस’ में सुप्रीम कोर्ट द्वारा दी गई गाइडलाइन के मुताबिक उच्च-स्तरीय जाति छानबीन समिति बनाने का निर्देश दिया। सुप्रीम कोर्ट  के आदेश के परिपालन में 13 जनवरी 2012 को आदिवासी विकास विभाग के तत्कालीन सचिव मनोज पिंगुआ की अध्यक्षता में समिति बनाई गई। इस समिति ने 22 जून 2013 को अपनी रिपोर्ट दी। समिति ने जोगी को आदिवासी नहीं माना। समिति की रिपोर्ट में कई खामियों का उल्लेख करते हुए इसे सितम्बर माह में अजीत जोगी ने हाईकोर्ट में चुनौती दी। हाईकोर्ट ने जोगी की याचिका स्वीकार की और राज्य सरकार को नोटिस तामील की। नोटिस मिलने के बाद राज्य सरकार ने पिंगुआ कमेटी की रिपोर्ट को ही वापस ले लिया और कोर्ट से कहा कि वह नये सिरे से कमेटी बनाकर रिपोर्ट देगी। राज्य सरकार ने आईएएस सी. मुरुगन और आशीष भट्ट की भी अलग-अलग कमेटियां बनाई, जो किसी-किसी कारण से रिपोर्ट नहीं दे सकीं। इसके बाद आदिवासी विकास विभाग की सचिव रीना बाबा कंगाले की अध्यक्षता में समिति बनाई। इस समिति ने भी 27 जून 2017 को सौंपी गई रिपोर्ट में जोगी को आदिवासी नहीं माना और इसके बाद तत्कालीन बिलासपुर कलेक्टर ने जोगी का जाति प्रमाण पत्र निरस्त कर दिया। इसे अजीत जोगी ने फिर हाईकोर्ट में चुनौती दी। हाईकोर्ट को उन्होंने दो बड़ी खामियों की ओर ध्यान दिलाया। एक तो इस समिति के गठन के बारे में राजपत्र में कोई प्रकाशन नहीं हुआ था, दूसरा समिति के अध्यक्ष, सचिव और उपाध्यक्ष तीनों ही पदों पर अकेले रीना बाबा कंगाले का नाम था और उनके ही हस्ताक्षर थे। जोगी को स्थगन मिला और कोर्ट ने नई समिति गठित करने का निर्देश दिया। इसके बाद तत्कालीन रमन सिंह सरकार ने डीडी सिंह की अध्यक्षता में समिति बनाई थी,जिसकी रिपोर्ट 23 अगस्त 2019 को सामने आई है।

याचिकाकर्ता नेताम का कहना है कि जब उन्होंने जोगी की शिकायत की तो शुरू में पार्टी की ओर से साथ मिला पर बाद में उन्हें पूरी लड़ाई अकेले लड़नी पड़ी। दौड़-धूप व अदालत में उसके लाखों रुपये खर्च हुए। इस बीच उसे लगातार प्रलोभन और दबाव का सामना भी करना पड़ा। यह सिलसिला अभी इस माह समिति की रिपोर्ट आने के पहले तक चला।  नेताम का कहना है कि तत्कालीन मुख्यमंत्री डॉ. रमन सिंह का रवैया जोगी के प्रति नरम था, जिसके कारण पार्टी के लोगों ने भी उनसे दूरी बना ली। नेताम ने इसी के चलते भाजपा से इस्तीफा दे दिया। विधानसभा चुनाव से ठीक पहले उन्होंने कांग्रेस की सदस्यता ग्रहण कर ली।

 

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