गांधी शांति प्रतिष्ठान के राष्ट्रीय अध्यक्ष कुमार प्रशांत का व्याख्यान

बिलासपुर। “ डॉ. भीमराव अम्बेडकर ने अछूतों का नेतृत्व हाथ में लेने के लिए साम्राज्यवादियों की मदद ली। अंग्रेज भारतीय समाज में फूट डालने के लिए उन्हें आगे कर रहे थे। फूट डालकर राज करने का यही काम आज हिन्दुत्व संगठन भी कर रहे हैं। गांधी का लक्ष्य भारतीय समाज के सभी वर्गों को एक साथ लेकर आजादी हासिल करना था और आपस के मसले हल करने का काम अंग्रेजों को नहीं सौंपना चाहते थे। अम्बेडकर की सोच इससे अलग थी। यह महात्मा गांधी का ही विशाल व्यक्तित्व था कि अम्बेडकर को उन्होंने महाराष्ट्र से बाहर राष्ट्रीय स्तर पर पहचान दी। गांधी के प्रयासों से ही कांग्रेस नेताओं के भारी विरोध के बावजूद उन्हें संविधान सभा में रखा गया तथा केन्द्रीय मंत्रिमंडल में जगह दी गई।”

यह कहना है कि गांधी शांति प्रतिष्ठान के अध्यक्ष कुमार प्रशांत का । बिलासपुर के समीप गनियारी में उनका दो दिन का व्याख्यान शुक्रवार की शाम को शुरू हुआ। यह कार्यक्रम जन स्वास्थ्य सहयोग केन्द्र और राष्ट्रीय युवा संगठन मध्यप्रदेश के संयुक्त तत्वावधान में रखा गया है। शनिवार की शाम को पांच बजे वे गनियारी में ‘गांधी और भारत विभाजन’ विषय पर दो घंटे का व्याख्यान देंगे।

‘महात्मा गांधी और अम्बेडकर’   विषय पर अपनी बात शुरू करते हुए कुमार प्रशांत ने कहा कि डॉ. भीमराव अम्बेडकर और महात्मा गांधी के बीच मतभेदों को लेकर बहुत सी चर्चा होती रहती है। देशभर में वे घूमकर अपना व्याख्यान देते हैं जो 25-30 निश्चित सवालों के बीच घूमता है। दरअसल, इतिहास को खुले मन से पढ़ना चाहिये। लोग समझते हैं कि इतिहास बीती हुई बात है लेकिन यह हमारे साथ चलता है। भविष्य की दिशा भी तय करता है। किसी एक किताब से इतिहास की तस्वीर साफ नहीं हो पाती, इसे हर आयाम से पढ़ना और समझना होता है। जब हम दो बड़े व्यक्तित्वों के बीच के सम्बन्धों पर बात करते हैं तो मानना होगा कि ये दो पहलवानों के बीच की कुश्ती नहीं है। जो मतभेद या विवाद दिखा करते हैं वे प्रतिगामी नहीं बल्कि सब एक दूसरे के पूरक होते हैं। इस नजरिये से देखें तो इतिहास की धारा को समझना बड़ा आसान हो जाता है। महात्मा गांधी को बहुत से लोग स्वीकार करते थे तो उनके समय के अनेक लोग उन्हें ख़ारिज भी करते थे। विडम्बना यह वे लोग चाहते थे कि गांधी जी खुद उन्हें ख़ारिज करने की स्वीकृति दें। कुमार प्रशांत ने कहा कि आम धारणा है कि गांधी बहुत लचीले थे, पर वास्तव में उसूलों को लेकर गांधी जिद्दी थे और हीरों की तरह सख्त थे- पर व्यक्तियों को लेकर सहज थे।

घोर गरीबी, करुणा और अपमान से पैदा हुए अम्बेडकर

14 अप्रैल 1891 से डॉ. भीमराव अम्बेडकर की कहानी शुरू होती है। करुणा, अपमान और अमानवीयता की वे मूर्ति थे। महाराष्ट्र के एक गांव में बेहद गरीब परिवार में उनका जन्म हुआ। उनका परिवार इतना गरीब था कि उन्हें देखने वाले लोग गरीबी की परिभाषा बदल दें। उनके घर में माता-पिता के अलावा तीन और भाई थे। भाईयों ने उसमें पढ़ाई के लिए ललक देखी तो अपनी पढ़ाई छोड़ दी और मजदूरी करने लगे। भाईयों की मजदूरी की कमाई से अम्बेडकर ने स्कूली शिक्षा पूरी की। बड़ौदा नरेश 100 प्रतिभावान बच्चों को आगे की शिक्षा के लिए 25 रुपये का वजीफा देते थे। इसी वजीफा से अम्बेडकर ने आगे की पढ़ाई की। भीमराव ने अच्छे अंकों से स्नातक की परीक्षा पास कर ली। कोई अछूत लड़का पहली बार यहां तक पहुंचा था। बड़ौदा नरेश के ध्यान में यह बात आई। वे हर साल उच्च शिक्षा के लिए दस बच्चों को विदेश भी भेजते थे जिसमें शर्त होती थी कि पढ़ाई पूरी होने के बाद वे लौटकर 10 साल रियासत की सेवा करेंगे। अमेरिका की कोलम्बिया यूनिवर्सिटी से इसी वजीफे के चलते अम्बेडकर ने डॉक्टरेट कर ली। उन्हें संयोगवश विषय भी उनसे जुड़ा मिला- हिन्दुस्तान में जातिवाद। लौटने पर उन्हें सैन्य सचिव बनाया गया। मगर उन्हें अपने अछूत होने का एहसास हर जगह हुआ। सैन्य सचिव होने के कारण अम्बेडकर को एक दफ्तर मिला, साथ में चपरासी भी। चपरासी दफ्तर में नहीं घुसता था। फाइलें फेंककर चला जाता था। उसे चपरासी के हाथों से पानी भी नहीं मिलता था। उन्हें अपने लिए खुद घड़े में पानी लेकर आना पड़ता था। बड़ौदा नरेश के कहने पर उनके एक मंत्री ने बड़ी दिक्कतों के बाद भीमराव के लिए रहने की जगह ढूंढ़ी जो पारसियों के इलाके में था। पारसियों ने उनका सामान हॉस्टल से बाहर फेंक दिया। कुछ उसी तरह जैसे दक्षिण अफ्रीका में महात्मा गांधी को ट्रेन से सामान सहित बाहर धकेल दिया गया था। महात्मा गांधी के साथ हुई घटना पूरी दुनिया में चर्चित हुई पर अम्बेडकर के साथ जो हुआ उसकी चर्चा नहीं हो पाई। अपमान और ग्लानि से दुखी किन्तु कठोर बन चुके अम्बेडकर ने तय कर लिया कि वे अपना रास्ता खुद तय करेंगे। दलितों के साथ मनुष्यों की तरह व्यवहार हो इसकी लड़ाई लड़ने का उन्होंने संकल्प लिया।

महाड़ के तालाब सत्याग्रह से उभरे अम्बेडकर

तब दलित सार्वजनिक जल स्त्रोतों का इस्तेमाल नहीं कर सकते थे। महात्मा गांधी से प्रभावित महाराष्ट्र की महाड़ पंचायत ने तय किया कि गांव के तालाब के पानी का सभी लोग इस्तेमाल कर सकते हैं, चाहे वे किसी समुदाय या जाति से क्यों न हो। कागज में तो यह प्रस्ताव पारित हो गया पर सवर्णों को यह पसंद नहीं आया। व्यवहारिक रूप से उस तालाब का कोई दलित इस्तेमाल नहीं कर पा रहा था। दलितों ने गैर दलित अनंत चित्ते के नेतृत्व में इस तालाब से जल लेने का आंदोलन शुरु किया। गांव में अफवाह फैल गई कि दलित लोग तालाब का इस्तेमाल करने के बाद गांव वालों पर हमला करेंगे। इस अफवाह के बाद दोनों पक्षों के बीच संघर्ष हुआ और उसमें कई दलित मारे गये। अम्बेडकर इस आंदोलन में शामिल हुए थे। आंदोलनकारियों ने गांधी की तस्वीर भी अपने साथ ले रखी थी क्योंकि उस समय अस्पृश्यता खत्म करने के लिए वे ही सबसे बड़ा आंदोलन चला रहे थे। इस दौरान अम्बेडकर ने कहा कि हमें महात्मा गांधी के नेतृत्व में काम करना चाहिए कि क्योंकि वही एक हैं जो अछूतों का साथ देते हैं। महाड़ तालाब का पहला आंदोलन सफल नहीं हुआ पर अंग्रेजों ने डॉ. अम्बेडकर की प्रतिभा पहचान ली और अपने लिए इस्तेमाल का मन बना लिया। दो साल बाद अम्बेडकर फिर महाड़ के तालाब में पहुंचे। पहला आंदोलन दलितों का था पर इस बार अंग्रेज सरकार के स्थानीय प्रशासन ने अम्बेडकर को पूरी मदद की। अम्बेडकर चर्चा में आ गये और दलित आंदोलन का नेतृत्व गांधी के हाथ से फिसल गया। अंग्रेज यही चाहते थे कि गांधी ही सबके प्रतिनिधि न रहें अलग-अलग वर्ग के दूसरे नेताओं को खड़ा किया जाये।

दूसरे महाड़ सत्याग्रह के बाद अम्बेडकर का रुख बदला उन्होंने कहा कि सवर्ण जब तक स्वीकार नहीं करते कि हम अपवित्र नहीं है तब तक अछूतों का समाज उनके साथ नहीं जायेगा। यह गांधी की सोच के विपरीत था। गांधी दलितों को हिन्दू समाज का अंग और अस्पृश्यता को कलंक मानते थे। सबको एक रखते हुए वे इस बुराई से मुक्ति चाहते थे। वे जानते थे कि एक रहकर ही आजादी की लड़ाई लड़ी जा सकेगी। दूसरी ओर, पहले अम्बेडकर खुद को सनातनी हिन्दू कहा करते थे लेकिन इस आंदोलन के बाद उन्होंने कई बार कहा कि हम हिन्दुओं में नहीं आते।

अम्बेडकर ने अंग्रेजों का आना देश लिए सौभाग्य बताया

1928 में जब साइमन कमीशन आया तो तब अम्बेडकर उनके साथ थे जबकि गांधी और कांग्रेस ने इसका विरोध किया। महात्मा गांधी कई मोर्चों पर लड़ाई लड़ रहे थे, जिनमें अछूतोद्धार भी एक था। उन्होंने कभी साम्राज्यवादियों का इनमें साथ नहीं लिया। जैसा हुआ था, अंग्रेज चाहते थे कि ऐसा कुछ करें कि भारतीय समाज टूटे ऐसे में अम्बेडकर में भी उन्हें संभावना दिखी थी। अंग्रेजों ने आजादी की प प्रक्रिया पर बात करने के लिए इंग्लैंड में पहला गोलमेज सम्मेलन बुलाया। गांधीजी के नहीं जाने के कारण उसका कोई नतीजा नहीं निकल सका। दूसरे गोलमेज सम्मेलन में गांधीजी गये। अंग्रेजों ने देश के अलग-अलग जाति, समुदायों के लोगों को बुला लिया था। इनमें दलित, सवर्ण, इंग्लो इंडियन, सिख, मुस्लिम, यूरोपियन, इसाई आदि कई वर्ग शामिल थे। सब अपने अपने हिस्से की आजादी और पैकेज की मांग कर रहे थे। मुस्लिम समाज के प्रतिनिधि शौकत अली ने तो अंग्रेजों से कहा कि हमारे अधिकार तय कर दीजिये फिर हम साम्राज्य के प्रति वफादार रहेंगे। अम्बेडकर ने भी अपने समाज के अछूत होने का हवाला देते हुए कहा कि अंग्रेजों का भारत आना हमारे सौभाग्य की बात है वे दलित अधिकारों की लड़ाई में हमारी ढाल बनकर खड़े हैं। उन्होंने विशेष सहूलियतों की मांग की, जिसमें सेपरेट इलेक्टोरल की बात भी थी। गांधीजी ने अलग-अलग समुदायों की मांगों को खारिज करते हुए सम्मेलन में कहा कि हम यहां देश को आजाद करने के तरीके पर बात करने के लिए आये हैं। भारतीय समाज में किसे क्या चाहिये यह तय करने काम आपके (अंग्रेजों) के हाथ में नहीं सौंप सकते। हमें पूरी रोटी (आजादी) दे दीजिये, उस रोटी को कैसे बांटना है हम भारत के लोग आपस में तय कर लेंगे। गांधीजी ने यह भी साफ किया कि जो लोग अपने-अपने समुदाय के लिये हिस्सा मांग रहे हैं उन्हें उनके समाज ने सर्वसम्मति से नहीं भेजा है। वे अकेले ऐसे हैं जिन्हें कांग्रेस कमेटी ने अपना प्रतिनिधि बनाकर भेजा है। नतीजा कुछ नहीं निकलना था, नहीं निकला। पर इस सम्मेलन के बाद कुछ सवालों पर बहस शुरू हो गई। मसलन,  अछूतों का प्रतिनिधि कौन है, अश्पृस्य हिन्दू हैं या नहीं, अस्पृश्यों को भारतीय समाज में उचित प्रतिनिधित्व दिलाने के लिए कौन से उपाय होने चाहिए? अंग्रेजों ने पृथक निर्वाचन के अम्बेडकर के प्रस्ताव से सहमति दी, जिसमें सिर्फ दलितों के द्वारा वोट डालकर अपना दलित प्रतिनिधि चुनने का अधिकार था। गांधी इसके खिलाफ थे। वे जानते कि साम्राज्यवादी यह प्रावधान देश के लोगों में फूट डालने के लिए ला रहे हैं।

पूना करार को लेकर अलग-थलग पड़े गांधी

गांधी जी को इंग्लैंड से आने के बाद साम्राज्यवाद के खिलाफ लड़ाई फिर शुरू कर दी। उन्हें पुणे के यरवड़ा जेल में डाल दिया गया। गांधी ने वहां पृथक निर्वाचन के प्रस्ताव को लेकर आमरण अनशन शुरू कर दिया। अम्बेडकर ने उनके इस कदम को पहले तो राजनीतिक स्टंट बताया पर बाद में अपने ही वर्ग के दूसरे प्रभावशाली नेताओं के दबाव में वे उनसे मिलने गये। गांधी जी ने उन्हें पृथक निर्वाचन से भी बेहतर विकल्प दिया कि जो दलितों के दुगने प्रतिनिधित्व का था। वह था कुछ सीटों को इस वर्ग के लिए आरक्षित कर देना। अम्बेडकर इस प्रस्ताव को मान गये। यह पूना पैक्ट के नाम से जाना जाता है।

गांधी जी और डॉ अम्बेडकर के बीच हुआ पूना करार बाद में टूट गया। कांग्रेस ने उनके बीच हुए समझौते को स्वीकृति नहीं दी। इधर अम्बेडकर को भी समझ में आ गया कि इस तरह से तो दलित आंदोलन उनके हाथ से निकल जायेगा। इधर महात्मा गांधी जेल से रिहा होने के बाद पूरे देश में हरिजन यात्रा पर निकल गये।

अम्बेडकर कभी जेल नहीं गये, न कोई चुनाव जीत पाये

कुमार प्रशांत ने बताया- गांधीजी ने कहा है कि वेद, पुराण, उपनिषद् उन्होंने भी पढ़ा है। इनमें अछूतों का कोई जिक्र नहीं है। यदि कहीं पर लिखा है तो आप मुझे दिखा दें फिर मैं इन पुराणों, उपनिषद् को भी मानने से मना कर दूंगा। गांधी का साथ नहीं मिलता तो अम्बेडकर आजादी के पहले के काशीराम होते। अम्बेडकर एक जाति का नेतृत्व कर रहे थे पर गांधी पूरे भारतीय समाज का, जिसमें अमीर गरीब, मजदूर किसान, राजा-महाराजा सभी शामिल थे। गांधीजी ने अम्बेडकर को प्रस्ताव दिया था कि वे न केवल अछूतों का आंदोलन अपने हाथ में ले लें बल्कि वे कांग्रेस का भी नेतृत्व संभालें। अम्बेडकर इसके लिए राजी नहीं हुए। उन्होंने कहा कि हमारे लिये देश की आजादी से भी बड़ा सवाल दलितों को मनुष्य का अधिकार दिलाना है। गांधी जी ने आजादी के संघर्ष के दौरान 5000 दिन जेलों में बिताये जबकि अम्बेडकर कभी जेल नहीं गये। वे वाइसराय कौंसिल के मेम्बर भी बने। अम्बेडकर तीन बार सन् 1951, 52 और 54 में चुनाव लड़े पर कभी नहीं जीत पाये। इससे यह बात साफ हुई कि वे अपने समाज के सर्वमान्य नेता नहीं थे।

गांधी ने संविधान सभा व मंत्रिमंडल में जगह दिलाई

कुमार प्रशांत ने बताया कि जब देश का संविधान लिखा जा रहा था तब ड्रॉफ्टिंग के लिये इंग्लैंड से किसी विशेषज्ञ को बुलाने की बात हो रही थी। तब गांधीजी ने ही डॉ. अम्बेडकर की विद्वता को महत्व देते हुए हुए ड्राफ्टिंग की जवाबदेही देने का प्रस्ताव रखा । पं. नेहरू ने डॉ. अम्बेडकर का नाम मंत्रिमंडल में नहीं रखा था। यह तर्क देकर कि वे तो कभी कांग्रेस में थे ही नहीं। तब गांधी ने ही कहा कि नेहरू जी यह कांग्रेस की नहीं देश की सरकार बन रही है। सबको साथ लेकर चलना होगा। इस तरह अम्बेडकर देश के पहले कानून मंत्री बनाये गए। अम्बेडकर को गांधी का साथ मिला इसलिये उनकी एक राष्ट्रीय पहचान बन पाई। अफसोस यह है कि जिस हाथ ने उन्हें मजबूत किया उसी को वे कमजोर करने की कोशिश करते रहे। हालांकि अपने अंतिम दिनों में इस बात को डॉ. अम्बेडकर ने महसूस कर लिया था।

 

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