गुरु घासीदास केन्द्रीय विश्वविद्यालय में परिचर्चा

बिलासपुर। गुरु घासीदास केन्द्रीय विश्वविद्यालय में राष्ट्रीय शिक्षा नीति 2019 के प्रारूप पर परिचर्चा श्रृंखला का आयोजन किया गया। मानव संसाधन विकास मंत्रालय के निर्देशानुसार एवं कुलपति महोदया प्रोफेसर अंजिला गुप्ता के सक्षण एवं कुशल मार्गदर्शन में राष्ट्रीय शिक्षा नीति 2019 के प्रारूप पर सार्थक चर्चा हुई।

कार्यक्रम की समन्वयक प्रो. प्रतिभा जे. मिश्रा,  अधिष्ठाता,  विधि अध्ययनशाला ने प्रारूप के विषय में विस्तार से जानकारी दी। उन्होंने राष्ट्रीय सिक्षा नीति के वर्गीकरण एवं उनके मुख्य बिंदुओं पर प्रतिभागियों को अवगत कराया। उन्होंने राष्ट्रीय शिक्षा नीति में जो आवश्यक बिंदुओं को जोड़ा जाना है के विषय में अपने विचार साझा किये।

प्रथम वक्ता डॉ. सी.एस.वझलवार, सह-प्राध्यापक एवं विभागाध्यक्ष, शिक्षा विभाग ने कहा कि शिक्षक को सृजनात्मक होना चाहिए। प्रारंभिक शिक्षा के रूप में खेल-खेल में शिक्षा के प्रावधान अच्छे हैं साथ ही ढांचागत व्यवस्था में बदलाव के साथ बढ़ती शिक्षा के क्रम में वैकल्पिक विषयों के चुनाव की सुविधआ शिक्षा के स्तर में सुधार करेगी।

प्रो. हरीश कुमार, वरिष्ठ प्राध्यापक, प्रबंध अध्ययन विभाग ने कहा कि राष्ट्रीय शिक्षा नीति में शोध को बढ़ावा देने पर जोर दिया गया है। नैतिक मूल्यों के स्तर,  प्रेरणा,  समर्पण एवं संस्थान को अपना समझना भी इस नीति का हिस्सा होना चाहिए। उद्योगों के पेशेवर लोगों को उच्च शिक्षा संस्थानों से जोड़ना चाहिए।

अधिष्ठाता छात्र कल्याण डॉ. एम.एन. त्रिपाठी ने कहा कि नीति में संचरना को विकसित करने पर बल दिया गया है। साथ ही बच्चों को समाज में कैसे रहना है यह सिखाना भी जरूरी है। प्रो. एस.एन. साहा, वरिष्ठ आचार्य, केमिकल इंजीनियरिंग ने टेक्निकल एजुकेशन पर अपनी बात रखी। उन्होंने कहा कि इंजीनयरिंग कॉलेजों एवं संस्थानों को आवश्यकता के अनुरूप खोलना चाहिए। इसमें इंडस्ट्री स्टूडेंट रेशियो पर भी चर्चा होनी चाहिए। उन्होंने कहा कि हमें तकनीकी शिक्षा को मजबूत बनाने के लिए कुछ सख्त निर्णय लेने होंगे।

डॉ. चारू अरोरा, सह-प्राध्यापक, रसायन शास्त्र विभाग ने शिक्षा, आधुनिकता एवं विकास दर पर अपने विचार व्यक्त किये। उन्होंने कहा कि शिक्षा के लक्ष्य अलग-अलग हैं। समाज में असुरक्षा एवं भय से निपटने के लिए अधिक से अधिक उपकरण होने चाहिए। उन्होंने सरकारी योजनाओं की समीक्षा की आवश्यकता पर बल देते हुए कहा कि योजनाओं का लाभ वंछित समूहों तक नहीं पहुंच पाता। समाज का हर परिवार समृद्ध हो। समृद्धि से आशय घर में आवश्यकता का सभी सामान होना है। प्रकृति के अंधाधुंध दोहन पर रोक लगाने की आवश्यकता पर बल देते हुए उन्होंने कहा कि शिक्षण प्रशिक्षण कार्यक्रम में आवश्यक संशोधन किया जाना चाहिए।

डॉ. एस.के. शाही, सह-प्राध्यापक एवं विभागाध्यक्ष, वनस्पति शास्त्र विभाग ने कहा कि विश्वविद्यालयों को शोधोन्मुखी होना चाहिए। शोध व नवोन्मेष से धनराशि अर्जन किया जा सकता है। वर्तमान में विभिन्न विश्वविद्यालयों में धनराशि है पर उस तरीके का शोध नहीं हो पा रहा है। भारत में दूसरे देशों की तुलना में ज्यादा ज्ञान है, लेकिन नोबल पुरस्कार नहीं मिलता। विश्वविद्यालयो में अध्यापन का बहुत ज्यादा दबाव रहता है पर शोध भी उतना ही जरूरी है। हमारे यहां आधारभूत ज्ञान का अभाव है। मोबाइल के सतत् प्रयोग के कारण दिमाग कमजोर होता जा रहा है। लोग प्रकाश की उत्पत्ति के संबंध में नहीं बता पाते जबकि भारत के प्राचीन साहित्य में इसका विस्तार से उल्लेख किया गया है। इसके बावजूद हमारे देश में इतना ज्ञान है जो हमें विश्व में काफी आगे ले जाएगा। उन्होंने कहा कि शोध कक्ष आधारित न होकर प्रकृति आधारित होना चाहिए। छात्रों को बंद एसी कमरों में लैपटॉप से पढ़ाने के बजाए प्रकृति के साथ मिलकर चलना होगा।

प्रो. वी.एस. राठौड़, अधिष्ठाता, कला अध्ययनशाला एवं विभागाध्यक्ष, शारीरिक शिक्षा विभाग ने कहा कि यदि पुरानी शिक्षा नीति में खामियां यदि थीं तो इसका स्पष्ट उल्लेख किया जाना चाहिए ताकि उन कमियों को दूर किया जा सके। सुंदर पिचई, सत्या नडेला की उपलब्धियों पर गौर करें तो नहीं लगता कि पुरानी शिक्षा नीति ठीक नहीं थी। इसरो के वैज्ञानिकों ने ही चंद्रयान और मंगलयान तैयार किया। शिक्षकों से अध्यापन और शोध के अलावा दूसरा काम नहीं लेना चाहिए। क्षमता और सामर्थ्य के अनुसार अनुसंधान के लिए लोगों को चिन्हित किया जाना चाहिए। प्रतिस्पर्धा समान स्तर पर होनी चाहिए।  उन्होंने कहा कि अस्सी साल पुराने ऐसे विश्वविद्यालय, जहां छात्र से ज्यादा शिक्षक हों, की तुलना दस साल पुराने विश्वविद्यालय से करना एवं दोनों विश्वविद्यलायों के लिए एक ही मापदंड अपनाना कहां तक उचित है?

प्रो. पी.के. बाजपेयी, विभागाध्यक्ष, शुद्ध एवं अनुप्रयुक्त भौतिकी विभाग ने कहा कि राष्ट्रीय शिक्षा नीति के प्रारूप में कुल 640 पृष्ठ हैं इसमें से 440 पृष्ठ की मूल रिपोर्ट 2017 में प्रेषित की गई थी। इस रिपोर्ट को कई बार पढ़ने का अवसर मिला। ऐसा प्रतीत होता है कि हम स्कूल शिक्षा के निजीकरण की ओर बढ़ रहे हैं। 1991 में विश्वविद्यालय अनुदान आयोग का गठन किया गया वहीं 1964 में गठित कोठारी आयोग की रिपोर्ट 1968 में प्रस्तुत की गई। हमारे देश में एक लाख की जनसंख्या की पीछे 15 लगो शोध करते हैं वहीं अमेरिका में यह आंकड़ा 800 से ज्यादा है। देश के 45 केन्द्रीय विश्वविद्यालयों में कुल 15 हजार पद स्वीकृत हैं जिसमें से 6 हजार खाली हैं। आठ केन्द्रीय विश्वविद्यालयों में तो 85 प्रतिशत पद खाली हैं। सबसे ज्यादा पद केरल स्थित केन्द्रीय विश्वविद्यालय में रिक्त हैं वहीं इंदिरा गांधी राष्ट्रीय जनजातीय विश्वविद्यालय अमरकंटक में सबसे कम पद खाली हैं। किसी भी विश्वविद्यालय में शोध के लिए पर्याप्त अनुकूल वातारण एवं सुविधा नहीं है, जो दुर्भाग्यजनक है। आईआईएससी बैंगलोर एवं टीआईएफआर मुंबई जैसी संस्थानों ने अपनी स्थापना के बाद से अब तक एक भी पेटेंट नहीं कराया है जबकि उनका कार्य मूलभूत अनुसंधान है।

प्रो. ए.एस. रणदिवे, वरिष्ठा प्राध्यापक, शुद्ध एवं अनुप्रयुक्त गणित विभाग ने कहा कि वर्तमान शिक्षा पद्धति में किताबें यह बताने में अक्षम है कि आपात परिस्थिति में किसी व्यक्ति की जान कैसे बचाई जा सकती है। बी.एससी. के छात्र अपना आवेदन हिंदी या अंग्रेजी में नहीं लिख पाते। पेरेंटिंग पर उतना वजन नहीं दिया जा रहा है जितना कि शिक्षा पर। शिक्षा वर्तमान परिदृश्य में विक्रय की वस्तु हो गई है।

प्रो. बी.एन. तिवारी, अधिष्ठाता, जीव विज्ञान अध्ययनशाला ने कहा कि शिक्षक, शिक्षक हैं न कि शिक्षाकर्मी। उन्होंने कहा कि वर्तमान में छात्रों को न्यूनतम ज्ञान नहीं है। उन्होंने कहा कि शोध सभी के लिए अनिवार्य नहीं होना चाहिए। ऐसा माना जाता है कि प्राथमिक शिक्षा सभी के लिए होनी चाहिए। उच्च शिक्षा सीमित के लिए तथा अनुसंधान केवल उनके लिए जिनकी वैचारिक क्षमता इसके लिए अनुकूल हो होनी चाहिए। उन्होंने राष्ट्रीय शिक्षा नीति के प्रारूप में किये गये विभिन्न प्रावधानों पर विस्तार से चर्चा की।

डॉ. अश्विनी कुमार दीक्षित, सह-प्राध्यापक, वनस्पति शास्त्र विभाग ने कहा कि राष्ट्रीय शिक्षा नीति 2019 के प्रारूप में किये गये विभिन्न प्रारूप प्राथमिक तौर पर ऊंचे लक्ष्यों को लिए प्रतीत होते हैं लेकिन उनके जमीनी क्रियान्वयन की स्थिति कठिन नजर आती है। छात्र को जिस भाषा में सुविधा महसूस हो उसमें शिक्षा प्रदान की जानी चाहिए। नई शिक्षा नीति में शिक्षकों का मूल्यांकन होगा जो तर्कसंगत नहीं है। वर्ष 2030 तक सस्थाएं स्वयं स्वायत्त तौर पर उपाधियों का वितरण करेंगी।

डॉ. बी.डी. मिश्रा, सह-प्राध्यापक, प्रबंध अध्ययन विभाग ने राष्ट्रीय शिक्षा नीति के कुछ प्रावधानों का उन्होंने स्वागत किया तथा कुछ पर पुर्नविचार किये जाने पर बल दिया। डॉ. मिश्रा ने स्कूली शिक्षा पर ज्यादा बल दिये जाने की बात कही लेकिन उसके लिए समय की बाध्यता ना होने पर सवाल किया।

प्रो. मनीषा दुबे, अधिष्ठाता, सामाजिक विज्ञान अध्ययनशाला ने कहा कि राष्ट्रीय शिक्षा नीति के प्रारूप में किये गये प्रावधान को बेहतर कल की नींव बताते हुए इसका स्वागत किया। उन्होंने कहा कि शिक्षा खेल खेल में दी जानी चाहिए। सरकार समावेशी विकास की भावना के साथ शिक्षा नीति को ला रही है इसका स्वागत किया जाना चाहिए।

प्रो. मनीष श्रीवास्तव, विशेष कर्तव्यस्थ अधिकारी विकास विभाग ने कहा कि राष्ट्रीय शिक्षा नीति के प्रारूप के प्राप्त निर्देशानुसार सार्थक चर्चा हुई। उन्होंने कहा इस दौरान सकारात्मक सुझावों के साथ राष्ट्र के विकास में इस नीति के क्रियान्वयन हेतु बातें सामने आई हैं। उन्होंने कहा कि शिक्षा का उद्देश्य लोगों की भलाई करना एवं बेहतरी के साथ प्रबंधन है।

कार्यक्रम के अंत में डॉ. राजेश भूषण, विभागाध्यक्ष,  मैकेनिकल इंजीनियरिंग विभाग ने सभी का आभार प्रदर्शन किया। कार्यक्रम का संचालन डॉ. रत्नेश सिंह, सह-प्राध्यापक, शारीरिक शिक्षा विभाग ने किया। इस अवसर पर विभिन्न अध्ययनशालाओं के अधिष्ठाता, विभागाध्यक्ष एवं बड़ी संख्या में शिक्षक उपस्थित रहे।

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